Wednesday, 14 October 2015

कृष्ण लीला


कंस की कारागार में वसुदेव के यहाँ भगवान ने कृष्ण-रूप में अवतार लिया। दस वर्ष तक बलराम के साथ ऐसे रहे कि उनकी कीर्ति वृन्दावन से बाहर नहीं गयी। वे गाय चराते तथा बांसुरी बजाकर सबको रिझाते थे।
खेल-खेल में उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया, कंस को उठाकर पटक दिया। कृष्ण ने अपनी शक्ति योगमाया से भौमासुर की लाई राजकन्याओं से एक ही मुहूर्त में अलग-अलग महलों में विधिवत् पाणिग्रहण संस्कार संपादित किया। एक बार नंद ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया तथा रात्रि में यमुना में स्नान करने लगे।
वह असुरों की वेला थी। अत: एक असुर उन्हें पकड़कर वरुण के पास ले गया। कृष्ण वरुण के पास गये तथा नंद बाबा को वापस ले आये।
नारद ने कंस को जाकर बताया कि कृष्ण वसुदेव का बेटा है तथा बलराम रोहिणी का। वे दोनों छिपाकर नंद के यहाँ रखे गये हैं। कंस ने कृष्ण को अपनी भावी मृत्यु का कारण मानकर वसुदेव तथा देवकी को पुन: कैद कर लिया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उन्हें कैद से छुड़ाया।
यदुवंशियों को ययाति का शाप था कि वे कभी शासन नहीं कर पायेंगे। अत: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन से शासन ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण और बलराम ने नंद से कहा-"पिताजी, आपका वात्सल्य अपूर्व है। आपने तथा यशोदा ने अपने बालकों के समान ही हमें स्नेह दिया। आप ब्रज जाइए।
हम लोग भी यहाँ का काम निपटाकर आपसे मिलने आयेंगे।" वे दोनों अवंतीपुर (उज्जैन) निवासी गुरुवर संदीपनि के गुरुकुल में रहकर उनकी सेवा करने लगे। चौंसठ दिन में उन दोनों ने चौंसठ कलाओं में निपुणता प्राप्त की तथा संदीपनि को गुरु-दक्षिणास्वरूप उसका मृत पुत्र पुन: लौटाकर वे दोनों मथुरा लौट गये।

श्रीकृष्ण के अनेक विवाह हुए थे। (कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।) उनकी श्रुतकीर्ति नामक बूआ का विवाह केकय देश में हुआ था। उनकी कन्या का नाम था भद्रा जिसका विवाह उसके भाई सन्तर्दन आदि ने कृष्ण से कर दिया था। मद्र देश की राजकुमारी सुलक्षणा को कृष्ण ने स्वयंवर में हर लिया था। इनके अतिरिक्त भौमासुर को मारकर अनेक सुंदरियों को वे कैद से छुड़ा लाये थे।
एक बार सूर्य-ग्रहण के अवसर पर भारत के विभिन्न प्रांतों की जनता कुरुक्षेत्र पहुंची। वहां वसुदेव, कृष्ण और बलराम से नंद, यशोदा, गोप-गोपियों आदि का सम्मिलन हुआ। कृष्ण ने गोपियों आदि को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दियां उन्हीं दिनों वसुदेव के यज्ञोत्सव का आयोजन था। उस संदर्भ में नंद बाबा, यशोदा तथा पांडव-परिवार के अधिकांश सदस्य तीन माह तक द्वारका में ठहरे।
एक बार कृष्ण अपने दो भक्तों पर विशेष प्रसन्न हुए। उनमें से एक तो मिथिला निवासी गृहस्थी ब्राह्मण श्रुतदेव था और दूसरा मिथिला का राजा बहुलाश्व था। श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण करके एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए तथा दोनों भक्तों ने भगवत्स्वरूप प्राप्त किया।
ब्रह्मा की प्रार्थना पर विष्णु ने हंस का रूप धारण करके सनकादि के चित्त तथा गुणों के अनैक्य के विषय में उपदेश दिया था। यदुवंशियों के संहार के उपरांत जरा नामक व्याध को निमिंत्त बनाकर श्रीकृष्ण ने स्वधाम में प्रवेश कियां उन्हें अपने धाम में प्रवेश करते कोई भी देवता देख नहीं पाया। श्रीकृष्ण की कृपा से उनके शरीर पर प्रहार करने वाला व्याध सदेह स्वर्ग चला गया। नश्वर शरीर के त्यागोपरांत वसुदेव, अर्जुन आदि बहुत दुखी हुए। सब उनकी अलौकिक लीलाओं को स्मरण करते रहे

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