Saturday, 24 October 2015

मानव काया ही तुंगभद्रा है ।

 भद्रा का अर्थ है कल्याण करने वाली , और तुंग का अर्थ है अधिक । अत्यधिक कल्याण करने वाली नदी ही तुंगभद्रा नदी है और वही मानव शरीर है । अपनी आत्मा को स्वयं देव बनाये वही आत्मदेव है । आत्मदेव ही जीवात्मा है । हम सब आत्मदेव है । नर ही नारायण बनता है । मानव देह मे रहा हुआ जीव देव बन सकता है , और दूसरोँ को भी देव बना सकता है ।
पशु अपने शरीर से अपना कल्याण नहीँ कर सकते । किन्तु मनुष्य बुद्धिमान प्राणी होने के कारण अपने शरीर से अपना तथा दूसरो का कल्याण कर सकता है ।
गुस्सा एवं कुतर्क करने वाली बुद्धि ही धुंधुली है । द्विधा बुद्धि , द्विधा बृत्ति ही धुंधुली है । यह द्विधा बुद्धि जब तक होती है तब तक आत्मशक्ति जाग्रत नहीँ होती ।
बुद्धि के साथ आत्मा का विवाह सम्बन्ध तो हुआ किन्तु जब तक उसे कोई महात्मा न मिले , सत्संग न हो तब तक विवेक रुपी पुत्र का जन्म नही होता है । विवेक ही आत्मा का पुत्र है । " बिनु सत्संग विवेक न होई " जिसके घर मे विवेक रुपी पुत्र का जन्म नही होता वह संसार रुपी नदी मेँ डूब जाता है । स्वयं को देव बनाने और दूसरोँ को देव बनाने की सामर्थ्य आत्मा मेँ है किन्तु आत्मशक्ति जाग्रत तभी होती है जब सत्संग होता है । हनुमान जी समर्थ थे किन्तु जब जामवन्त ने उनके स्वरुप का ज्ञान कराया तभी उन्हे अपने स्वरुप का आत्मशक्ति का ज्ञान हुआ ।" का चुपि साधि रहा हनुमाना " ।
सत्संग से आत्मशक्ति जाग्रत होती है । सन्त महात्मा द्वारा दिया गया विवेक रुपी फल बुद्धि को पसन्द नही है ।
धुँधली (बुद्धि ) छोटी बहन है। मन बुद्धि की सलाह लेता है तो दुःखी होता है । मन कई बार आत्मा को धोखा देता है ।
आत्मदेव की आत्मा बड़ी भोली है उसे मन बुद्धि का छल समझ मे नही आता । अतः फल गाय को खिलाया । गो का अर्थ गाय , इन्द्रिय , भक्ति आदि है ।
धुंधुकारी कौन है - हर समय द्रव्य सुख , और काम सुख का चिन्तन करे , धर्म को नही बल्कि काम सुख एवं द्रव्य सुख ही प्रधान है ऐसा माने वही धुँधुकारी है । बड़ा होने पर धुँधुकारी पाँच वेश्याएँ लाया अर्थात् शब्द , स्पर्श , रुप , रस और गन्ध ये पाँच विषय ही पाँच बेश्याएँ है जो धुँधुकारी अर्थात् जीव को बाँधती है ।
धुँधुकारी के लिए कहा गया है - शव हस्ते भोजनम् अर्थात् के हाथ से भोजन करता था । जो हाथ परोपकार नही करते , श्रीकृष्ण की सेवा नही करते , वे हाथ शव के ही हाथ हैँ । धुँधुकारी स्नानादि क्रिया से हीन था । धुँधुकारी कामी था अतः स्नान तो करता ही होगा किन्तु स्नान के बाद सन्ध्या सेवा न करे , सत्कर्म न करे तो वह स्नान ही व्यर्थ है वह पशु स्नान है अतः कहा गया वह स्नान ही नही करता था ।
तीन प्रकार के स्नान - उषाकाल मेँ 4 बजे से 5 बजे तक ऋषि स्नान । 5 बजे से 6 बजे तक मनुष्य स्नान । 6 बजे के बाद किया जाने वाला राक्षसी स्नान ।
सूर्य बुद्धि के स्वामी है उनकी सन्ध्या करने से बुद्धि तेज होती है । सम्यक ध्यान ही संध्या है ।
स्वान्तःसुखाय
श्रीहरिशरणम्

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