Wednesday, 21 October 2015

वेष्ण

एक गाँव में किसी देवी के बहुत बड़े उपासक रहते। उनके पास ऐसी सिद्धि थी की जब वो अपने आराध्य देवी को याद करे तब वे देवी साक्षात् प्रकट होते।
एक बार चाचा हरिवंशजी और उनके संग में आये हुए वैष्णव कही जा रहे थे। रात्रि का समय हुआ, सभी वैष्णव ने रात्रि मुकाम करने का विचार किया।
रात्रि को चाचा हरिवंशजी और संग में आये हुए वैष्णव उस उपासक के घर के आँगन में विश्राम हेतु सो गये।
उस उपासक ने नित्य की तरह रात्रि में मालजी लेकर जप प्रारम्भ किया। उसे सिद्धि प्राप्त थी की जब वो जप प्रारम्भ करता तब उसकी आराध्य देवी प्रकट हो जाती।
उपासक ने पूरी रात्रि जप किया लेकिन उसकी आराध्य देवी प्रकट नही हुई। उपासक का मन आकुल व्याकुल हो गया और विचार करने लगा की आज मेरी साधना में कोई भूल हुई होगी? मुझसे कोई अपराध हुआ होगा? आज पूरी रात्रि जप किये फिर भी देवी क्यों प्रकट नही हुए?
सुबह होते ही उपासक ने उनकी आराध्य देवी का नाम लिया। नाम लेते ही उसकी आराध्य देवी सामने से चलते हुए उपासक के घर आये। उपासक ने देवी से पूछा की मेने पूरी रात जप किये फिर भी आप नही पधारे और सुबह नाम लेते ही आप पधारे। आप रात्रि को क्यों नही पधारे?
तब उस उपासक की आराध्य देवी ने कहा की- मैं रात्रि को आई तो थी लेकिन तुम्हारे घर के अन्दर नही आ सकी।
उस देवी ने कहा की- जब में तुम्हारे घर आँगन में आई तब मेने देखा की यहा तो वैष्णव विश्राम कर रहे है। वैष्णव को देखकर मुझे लगा की मैं तो प्रभु की माया हूँ लेकिन ये तो वैष्णव है जिनके रोम रोम में प्रभु बिराजते है, जिनके पीछे पीछे मेरे प्रभु दोड़ते है।
जब ऐसे वैष्णव विश्राम करते हो तब उन वेष्णवो को उलाँघ कर मैं तुम्हारे घर में केसे आती?
उपासक ने देवी से पूछा- “फिर आपने पूरी रात्रि क्या किया?”
तब देवी ने कहा- जिन वेष्णवो की टेहल के लिए देवता भी तरसते है ऐसे वेष्णवो की सेवा मुझे सुलभ हुई है। कल रात्रि को गर्मी बहुत थी, मैं पूरी रात खड़ी खड़ी इन वेष्णवो के सुख के लिए पंखे की सेवा कर रही थी।
उपासक ने देवी से आश्चर्य होकर पूछा की- ” ये वैष्णव आप से बड़े है क्या जो आप इनको पंखे की सेवा दे रहे थे?
तब देवी ने उपासक से कहा की- जिनके रोम रोम में प्रभु हो,जिनके अधीन श्री प्रभु हो गये हो ऐसे वैष्णव से मैं बड़ी हो ही नही सकती।
उपासक ने देवी से पूछा- वे सारे वैष्णव कहा है?
तब देवी ने कहा की- अभी वे ज्यादा दूर नही गये, तुम दोड़ते दोड़ते जाओ वे तुम्हे गाँव के बहार मिल जायेंगे।
उपासक दोड़ते दोड़ते चाचा हरिवंशजी के पास पंहुचा और विनती करी- “मुझे वैष्णव होना है कृपा कर मुझे शरण में लीजिये।
चाचा हरिवंशजी ने कहा की तुम्हे शरण तो हमारे श्री गुरु श्री गुंसाईजी लेंगे। उस उपासक की आतुरता देख चाचा हरिवंशजी ने उसे श्री गुंसाईजी का आशीर्वाद उपरणा पधराया।
श्री गुंसाईजी का आशीर्वाद उपरणा लेकर उपासक अपने घर आया और उस उपरने को एक खूंटे पर पधरा दिया।
उस दिन उपासक के यहा उनसे मिलने हेतु खूब मेहमान आये हुए थे। जब उपासक जप करने बेठा तब हवा के झोंके के साथ खूंटे पर पधराया हुआ उपरणा उपासक के गले में आ गया।
उपासक के गले पर उपरणा आते ही उसे घर में आये हुए मेहमान पशु की तरह दिखने लगे। उसे खूब आश्चर्य हुआ। जब उसने उपरणा निकाला तो उसे सभी मनुष्य की तरह दिखने लगे।
उपासक जब उपरणा ओड़कर गाँव में निकला तो उसे पुरे गाँव में पशु ही दिखे कोई मनुष्य दिखे ही नही।
जब उपासक गाँव में थोड़ी दुरी पर गया तो उसे 2 मनुष्य दिखे। उपासक ने उन 2 मनुष्य से पूछा आप कोन हो?
तब उन मनुष्य ने कहा की हम वैष्णव है। नित्य श्री प्रभु की सेवा सत्संग और स्मरण करते है।
तब उस उपासक को ख्याल आया की ये प्रसादी उपरणा गले में आते ही मेरी अन्तर्दृष्टि खुल गई। जो जीव खाना पीना ही अपना जीवन मानते है ऐसे जीव उसे पशु जेसे दिखने लगे और जो जीव सेवा सत्संग स्मरण करते वे मनुष्य जेसे लगे। श्री गुंसाईजी के ऐसे जीवों को कोटी कोटि वंदन।
।।।   श्री गुंसाईजी परम दयाल की जय   ।।।

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