गीता  में  भगवान  ने  स्वयं  अपने  मुख  से  कहा  है कि,  मिश्रित  कर्मों  का  फल  मानव  शरीर  है । यानी कुछ   अच्छे  और  कुछ  बुरे,  दोनों  तरह  के  मिश्रित कर्म , पूर्व  जन्म  में  बन  जाने  के  कारण  ही   मनुष्य शरीर  मिलता  है । अगर  सबके  सब   सत्कर्म   होते तो   ऊर्ध्वगति  होती  ,   और  सबके   सब  बुरे   कर्म  होते  ,  तो   पशु   योनि   मिलती  ।  इसका   मतलब यह  हुआ  कि ,  अगर   मानव   शरीर  मिला  है  , तो कुछ  न  कुछ  और  कभी  न  कभी  कष्ट  तो   भोगना
ही पडेगा ।
( भगवान ने गीता 14/18 में कहा है )
(ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था मध्ये तिष्ठान्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ।।)
अर्थ - सत्व गुण में स्थित मनुष्य ऊर्ध्व लोकों में जाते हैं ,
रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्युलोक में जन्म लेते हैं ,
और निंदनीय तमोगुण की वृत्ति में स्थित तामसी मनुष्य अधोगति , यानी पशु योनि को प्राप्त होते हैं ।
सात्विक - राजस अथवा तामस मनुष्य की गति तो अंतिम चिंतन के अनुसार होगी , लेकिन सुख दुःख का भोग उनके कर्मों के अनुसार ही होगा ।
उदाहरण के लिए , किसी के कर्म तो अच्छे हैं , पर अंतिम चिंतन अगर पशु का हो गया , तो अंतिम चिंतन के अनुसार वह पशु योनि को प्राप्त होगा ( अन्ते मति सा: गति ) ।
परन्तु उस योनि में भी उसे कर्मों के अनुसार काफी सुख - आराम मिलेगा । इसी प्रकार किसी के कर्म तो बुरे हैं , पर अंतिम चिंतन के अनुसार वह मनुष्य बन गया , तो उस मनुष्य योनि में भी , उसे कर्मों के अनुसार दुःख - शोक - रोग आदि ही मिलेंगे , और यह भी सत्य है कि , अंतिम चिंतन धर्मी व्यक्ति का ही धर्मानुकूल होता है , अधर्मी का नहीं ।
इसलिए जीवन में प्रारब्धावश सुख - दुख तो आने ही हैं , चाहे वह संत हो , ज्ञानी हो या संसारी । बस अंतर यही है कि , आने वाले कष्टों को ज्ञानी व्यक्ति उस समय विवेक से काम लेकर सहजता से काट लेता है , उसकी सोच ज्ञान के कारण उस समय सहज ही यह बन जाती है कि , यह तो मेरे ही पूर्व के किसी बुरे कर्म का परिणाम है , और वह उन कष्टों को हँस - हँस कर काट लेता है। ( भगवान पतंजलि ने कहा है कि , विवेकी पुरुष को कष्ट कहाँ ) ।
जबकि विवेकहीन व्यक्ति उन कष्टों के लिए वजाय खुद को दोष देने के , भगवान को दोष देने लगता है कि , मैंने उसका क्या ? बिगाडा था , जो उसने मुझे यह कष्ट दिया , और रोने पीटने - चिल्लाने में समय जाया करके अपने कष्टों को और बढा लेता है , वह ज्ञानी व्यक्ति की तरह से धैर्य से काम नहीं लेता , कि जब वे सुख के दिन नहीं रहे , तो ये दुख के दिन भी नहीं रहेंगे ।
ही पडेगा ।
( भगवान ने गीता 14/18 में कहा है )
(ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था मध्ये तिष्ठान्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ।।)
अर्थ - सत्व गुण में स्थित मनुष्य ऊर्ध्व लोकों में जाते हैं ,
रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्युलोक में जन्म लेते हैं ,
और निंदनीय तमोगुण की वृत्ति में स्थित तामसी मनुष्य अधोगति , यानी पशु योनि को प्राप्त होते हैं ।
सात्विक - राजस अथवा तामस मनुष्य की गति तो अंतिम चिंतन के अनुसार होगी , लेकिन सुख दुःख का भोग उनके कर्मों के अनुसार ही होगा ।
उदाहरण के लिए , किसी के कर्म तो अच्छे हैं , पर अंतिम चिंतन अगर पशु का हो गया , तो अंतिम चिंतन के अनुसार वह पशु योनि को प्राप्त होगा ( अन्ते मति सा: गति ) ।
परन्तु उस योनि में भी उसे कर्मों के अनुसार काफी सुख - आराम मिलेगा । इसी प्रकार किसी के कर्म तो बुरे हैं , पर अंतिम चिंतन के अनुसार वह मनुष्य बन गया , तो उस मनुष्य योनि में भी , उसे कर्मों के अनुसार दुःख - शोक - रोग आदि ही मिलेंगे , और यह भी सत्य है कि , अंतिम चिंतन धर्मी व्यक्ति का ही धर्मानुकूल होता है , अधर्मी का नहीं ।
इसलिए जीवन में प्रारब्धावश सुख - दुख तो आने ही हैं , चाहे वह संत हो , ज्ञानी हो या संसारी । बस अंतर यही है कि , आने वाले कष्टों को ज्ञानी व्यक्ति उस समय विवेक से काम लेकर सहजता से काट लेता है , उसकी सोच ज्ञान के कारण उस समय सहज ही यह बन जाती है कि , यह तो मेरे ही पूर्व के किसी बुरे कर्म का परिणाम है , और वह उन कष्टों को हँस - हँस कर काट लेता है। ( भगवान पतंजलि ने कहा है कि , विवेकी पुरुष को कष्ट कहाँ ) ।
जबकि विवेकहीन व्यक्ति उन कष्टों के लिए वजाय खुद को दोष देने के , भगवान को दोष देने लगता है कि , मैंने उसका क्या ? बिगाडा था , जो उसने मुझे यह कष्ट दिया , और रोने पीटने - चिल्लाने में समय जाया करके अपने कष्टों को और बढा लेता है , वह ज्ञानी व्यक्ति की तरह से धैर्य से काम नहीं लेता , कि जब वे सुख के दिन नहीं रहे , तो ये दुख के दिन भी नहीं रहेंगे ।
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