Wednesday, 28 October 2015

चीर हरण लीला >>

कुमारिकाओ के मन मेँ ऐसी भावना थी कि वे नारी हैँ । ऐसा भाव अहंकार का द्योतक है । उनके इसी अहंभाव को दूर करने हेतु श्रीकृष्ण ने चीर हरण लीला की । इस लीला द्वारा अहंकार का पर्दा हटाकर प्रभू को सर्वस्व अर्पण करने का सन्देश श्रीकृष्ण ने दिया ।
भगवान कहते है - तुम "अपनापन" स्वत्व भुलाकर मेरे पास आऔ । संसार शून्य और सांसारिक संस्कार शून्य होकर , निरावृत्त होकर मेरे पास आओ । द्वैत का आवरण दूर करने पर भी भगवान मिलेँगे ।
" सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज"
गीता मे भी अर्जुन से कहा है। यदि श्रीमदभागवत को गीता के सिद्धान्तो की व्याख्या कहा जाय तो अतिशयोक्ति नही होगा ।
शरीर को वस्त्र छिपाता है और आत्मा को वासना । भगवान हमारे पास ही है किन्तु वासना के कारण देख नहीँ पाते ।
कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूढ़े वन माहि ।
ऐसे घट घट राम दुनिया देखे नाहि ।।
तथा - सियाराम मय सब जग जानी ।।
एवं - सो तुम जानहुँ अन्तरयामी ।।
आत्मा और परमात्मा के बीच वासना का पर्दा है सो हम भगवान का अनुभव नहीँ कर पाते । जैसे ही यह पर्दा हटेगा प्रभू का दर्शन होगा ।
आत्मा अंदर है और ऊपर है अज्ञान और वासना का पर्दा ।
अज्ञान और वासना के इस आवरण को चीर कर भगवान से मिलना है । सिद्ध गुरु की कृपा , परमात्मा की कृपा से बुद्धिगत वासना दूर होती है। बुद्धि मेँ स्थित काम , कृष्ण मिलन मे बाधक है ।
अज्ञान - वासना - वृत्तियोँ के आवरण का नष्ट होना ही चीर हरण लीला है और आवरण नाश के पश्चात जीवात्मा का प्रभू से मिलन है रासलीला ।
कामवासना नष्ट होने पर ईश्वर के साथ अद्वैत हो जाता है ।
भगवान लौकिक वस्त्रो की नहीँ बल्कि बुद्धिगत अज्ञान , कामवासना की चोरी करते है। श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैँ , वे जल मे भी हैँ । वे तो गोपियो से मिले हुए ही थे , किन्तु गोपियाँ अज्ञान और वासना से आवृत्त होने के कारण श्रीकृष्ण का अनुभव नही कर पाती थीँ ।सो उस बुद्धिगत अज्ञान और वासनारुपी वस्त्रोँ को भगवान उठा ले गये । वैसा प्रभू तब करते है जब जीव उनका हो जाता है ।
भगवान कहते है -
न मय्यावशितधियां कामः कामाय कल्पते ।
भर्जिता क्वथिता धान्यः प्रायो बीजाय नेष्यते ।।
जिसने अपनी बुद्धि मुझमे स्थापित कर लिया है , उनके भोगसंकल्प , सांसारिक विषय भोग के लिए नहीँ होते ।बल्कि वे संकल्प मोक्षदायी होते है । जैसे भुने हुए धान्य का बीजतत्व नष्ट हो जाता है और कभी अंकुरित नहीँ हो पाता । उसी प्रकार जिसकी बुद्धि मे से काम वासना का अंकुर उजड़ गया है , वह फिर से अंकुरित नही हो पायेगा ।

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