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Sunday, 11 October 2015

प्रभु के आश्रयसे बढ़कर दूसरा कोई आश्रय नहीं होता है ।


प्रभु की शरणागति का अभिप्राय अपनी सारी चिन्ता को छोड़कर भजन करने से है l
अपने पुरुषार्थ को नहीं छोड़ना चाहिए l
मुख्यतः पंचम् पुरुषार्थ प्रेम को जीवन में लाना चाहिए क्योकि हम सब साक्षात् प्रभु का अंश है
और प्रेम हमारा स्वरूप् है l
जब तक यह हम अपने अंशी भगवान का आश्रय नहीं लेगे तब तक यह दूसरों का आश्रय लेकर पराधीन होते ही रहेगे और दुःख पाते ही रहेगें ।
जबतक मनुष्य भगवान का सहारा नहीं लेगा, तबतक वह दुःख पाता ही रहेगा ।
हम सबका जीवन भी प्रभु भक्ति से प्रकाशित हो यही प्रार्थना है प्रभु के चरणों में

Tuesday, 6 October 2015

मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो ना कोई



मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो ना कोई।।
इस में दूसरो ना कोई बहुत विलक्षण शक्ति है
मेरो तो गिरधर गोपाल सभी कहते है किन्तु
दूसरो ना कोई रहस्यपूर्णता मर्म बात है 
श्रीकृष्णजी के द्वारा अपने को ऋणी कहनेका तात्पर्य है कि तुम लोगों का मेरे प्रति जैसा प्रेम है, वैसा मेरा तुम्हारे प्रति नहीं है । कारण कि मेरे सिवा तुम्हारा और किसी में किंचिन्मात्र भी प्रेम नहीं है, पर मेरा अनेक भक्तों में प्रेम है ! अत: मैं तुम्हारे साथ बराबरी नहीं कर सकता । जैसे तुम मेरे सिवाय किसी को नहीं मानतीं, ऐसे ही मैं भी तुम्हारे सिवाय किसीको न मानूँ, तभी बराबरी हो सकती है ! परन्तु मेरे तो अनेक भक्त हैं, जिनको मैं मानता हूँ । इसलिये मैं तुम्हारा ऋणी हूँ !

न्तसमयमें कोई अपने पुत्र आदिके रूपमें भी ‘नारायण’, ‘वासुदेव’ आदि नाम लेता है



प्रश्नअन्तसमयमें कोई अपने पुत्र आदिके रूपमें भी नारायण’, ‘वासुदेवआदि नाम लेता है तो उसको भगवान् अपना ही नाम मान लेते हैं; ऐसा क्यों ?
उत्तरभगवान् बहुत दयालु हैं । उन्होंने यह विशेष छूट दी है कि अगर मनुष्य अन्तसमयमें किसी भी बहाने भगवान्‌का नाम ले ले, उनको याद कर ले तो उसका कल्याण हो जायगा । ......तात्पर्य है कि मनुष्यको रात-दिन, खाते-पीते, सोते-जागते, चलते-फिरते, सब समय भगवान्‌का नाम लेते ही रहना चाहिये । मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमापुस्तकसे




वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपरा क्रियाः
वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः
वासुदेवपरो धर्मों वासुदेवपरा गतिः …….
अर्थ शास्त्रो मे ज्ञान का परम उद्देश भगवान श्री कृष्ण है । यज्ञ करने का उद्देश उन्हे ही प्रसन करना है । योग उन्ही के साक्षात्कार के लिए है । सारे सकाम कर्म उन्ही के द्वारा पुरस्कृत होते है । वे परम ज्ञान है ओर सारी कठिन त्पस्याय उन्ही को जानने के लिए की जाती है । उनकी प्रेमपूर्ण सेवा करना ही धर्म है । वे ही जीवन के चरम लक्ष्य है । ------------- श्री मद भागवतम , २ -२९"