(ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वतीजी महाराज)
पोस्ट संख्या – ८/११
नन्दनन्दन श्रीकृष्णका प्रेम जिसके चित्तमें उदय होता है, उसके द्वारा कितनी ही उलटी-सीधी चेष्टाएँ होने लगती हैं; क्योंकि इसमें विष और अमृत दोनोंका अपूर्व सम्मिश्रण है । पीड़ा तो इसमें इतनी है कि इसके सामने नये कालकूट विषका गर्व भी खर्व हो जाता है । आनन्दका इतना बड़ा उद्गम है यह प्रेम कि अमृतकी मधुरिमाका अहंकार शिथिल पड़ जाता है । श्रीरूप गोस्वामीने इसका वर्णन करते हुए कहा है –
पीड़ाभिर्नवकालकूटकटुतागर्वस्य निर्वासनो
निष्यन्देन मुदां सुधामधुरिमाहङ्कारसङ्कोचनः ।
प्रेमा सुन्दरी नन्दनन्दनपरो जागर्ति यस्यान्तरे
ज्ञायन्ते स्फुटमस्य वक्रमधुरास्तेनैव विक्रान्तयः ।।
इतना ही नहीं, प्रेमकी गति और भी विलक्षण है । क्योंकि प्रेम तो अपने-आपकी मस्ती है, उसमें किसी दूसरेकी अपेक्षा नहीं है । कोई कुछ भी कहे, सुने, करे, प्रेमी अपने ढंगसे सोचता है । प्रियतमकी स्तुति सुनकर जहाँ प्रसन्न होना चाहिये, वहाँ प्रेमी कभी-कभी उससे तटस्थ हो जाता है; वह सब सुन-सुनकर उसके चित्तमें व्यथा होने लगती है । प्रियतमकी निन्दा सुनकर जहाँ दुःख होना चाहिये, वहाँ प्रेमी सुखका अनुभव करने लगता है – उन बातोंको परिहास समझकर । दोषके कारण उसका प्रेम क्षीण नहीं होता, गुणोंके कारण बढ़ता नहीं; क्योंकि वह तो आठों प्रहर एकरस, एक-सा रहता है । अपनी महिमामें प्रतिष्ठित, अपने स्वरसमें डूबा हुआ नैसर्गिक प्रेम कुछ ऐसा ही होता है – कुछ ऐसी ही उसकी प्रक्रिया है । श्रीरूप गोस्वामीके शब्दोंमें –
स्तोत्रं यत्र तटस्थतां प्रकटयच्चित्तस्य धत्ते व्यथां
निन्दापि प्रमदं प्रयच्छति परीहासश्रियं बिभ्रती ।
दोषेण क्षयितां गुणेन गुरुतां केनाप्यनातन्वती
प्रेम्णः स्वारसिकस्य कस्यचिदियं विक्रीडति प्रक्रिया ।।
No comments:
Post a Comment