प्रथम शरणागति
शरणमें आने के बाद प्रथम भक्त को यह चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में
प्रभु के अनुकूल रहेना। जिस प्रकार एक सेवक स्वामी का अनुसरण करता है।
द्वितीय शरणागति
भक्त को कभी भी एसी क्रिया नहीं करनी चाहिए, जिससे प्रभु रुष्ट हो
जायें। अर्थात् प्रभु को अप्रसन्न करने वाले सभी प्रतिकूल पदार्थों का
हार्दिक परित्याग करना।
🥀 तृतीय शरणागति
अपने प्रभु के प्रति दृढ़ विश्वास रखना चाहिए औऱ मन में यह विचारना
चाहिए कि हमारे मस्तक पर श्रीनाथजी का हस्त कमल है। अतः हमारे लौकिक औऱ
पारलौकिक सभी कार्यों को स्वतः सिद्ध करेंगे। और वह जैसा करेंगे उसी में
हमारा कल्याण है। एसा दृढ़ विश्वास कभी नहीं छोडना चाहिए।
चतुर्थ शरणागति
भक्त को यह विचारना चाहिए की हमारा पाणिग्रहण सर्व समर्थ भगवान
श्रीकृष्ण ने किया है। अतः हमें चिंता करने कि कोई भी आवश्यकता नहीं है।
हमारे मस्तक पर चौदह भूवन के पति श्रीनाथजी सदा बिराजते है। अतः हमें ना
कोई भय है ना चिन्ता।
पाँचवी शरणागति
यहाँ आत्मनिवेदन कि बात समझाई गई है। जिसका भाव ब्रह्मसंबंध होता
है।जब हमने अपनी आत्मा को श्रीकृष्ण को निवेदित कर दिया है। तो भला बताओ
हमारे पास क्या पदार्थ और शेष रहा जिसके रक्षण एवं भरण पोषण की चिन्ता
करें। हमारेपास जो कुछ भी है सब प्रभु का है। अतः पूर्णतया निश्चिंत रहना
चाहिए।
छठी शरणागति
यहाँ वैष्णवो को दिनता का दिव्य पाठ पढाया जाता है। क्योंकि दीनता होने
पर ही प्रभु कृपा होती है। भक्तों के लिए तो दीनता ही हरि को प्रसन्न करने
का एकमात्र साधन है।
श्रीवल्लभाधीश की जय।
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