संसार
में जिनके पास भी श्रीराधाकृष्ण की प्रेमरूपी संपत्ति है, वही सर्वाधिक
धनी हैं. संसार की अन्य समस्त सम्पत्तियाँ, जिनके पीछे हम अज्ञानतावश भागते
हैं और उन्हें अपने सुख का साधन समझने की भूल करते हैं, वे सब की सब नश्वर
हैं.
संसारी ऐश्वर्य आदि
को प्राप्त कर लेने पर हमको सुख मिलेगा, यह भ्रान्ति है. इनमें तो स्थिरता
ही नहीं है. आज है, कल नहीं है. वस्तुतः संसार में ऐश्वर्यवान व्यक्ति ही
अधिक दुःखी दिखलाई पड़ते हैं. जड़ पदार्थों की गुलामी हमारे मन-बुद्धि को को
भी जड़ बना देती है. इनसे आनन्द अथवा रस की प्राप्ति कभी भी नहीं हो सकती
है. यह सिर्फ कहने की ही नहीं, अपितु सबका व्यक्तिगत अनुभव है. जड़-पदार्थों
से संपन्न समृद्धशाली व्यक्तियों के हृदय में सुख नहीं है, शान्ति नहीं
है, वे त्रस्त हैं और तनावों से घिरे हुए हैं.
आध्यात्म
कहता है कि हमारा वास्तविक धन है भगवत्-प्रेम. वस्तुतः प्रेम ऐसी वस्तु है
जिसे भगवान् से भी बड़ा बताया गया है. इस प्रेम के अंडर में भगवान् हो जाते
हैं. प्रेम भगवान् को बाँध लेती है. जिनके पास भी यह दिव्य प्रेम होता है,
वह ऐसा महानतम् धनी है जिसके पीछे पीछे भगवान् घूमते हैं. ग्वालों के
प्रेमाधीन कृष्ण घोड़ा बनकर सवारी कराते हैं, यशोदा मैया से ऊखल बंध जाते
हैं और गोपियों की छाछ के लिए नाचते हैं और उनकी गालियों के लिए ब्रज की
गली-गली मचलते फिरते हैं. यह प्रेमधन ही वास्तविक धन है. यह लुटाने से
लुटता नहीं, वरन् इस धन के धनी दूसरों को भी प्रदान कर सदा के लिए आनंदमय
कर देते हैं. इसके आगे सांसारिक ऐश्वर्य, जो ब्रम्हलोक तक विस्तृत है, सो
भी नगण्य ही है. ब्रम्हा भी प्रेम की सिरमौर गोपियों की चरणधूलि की कामना
करते हैं.
इसलिए ही
श्रीरायरामानन्द-संवाद में महाप्रभु गौरांग रामानंद जी से प्रश्न करते हैं
कि संपत्तियों के मध्य जीव की सबसे बड़ी संपत्ति क्या है? तो रामानंद उत्तर
देते हैं कि जिनके पास श्रीराधाकृष्णरुप प्रेमसम्पत्ति है, वही सबसे बड़े
धनी हैं.
*सम्पत्तिर मध्ये जीवेर कोन् संपत्ति गणि ?*
*'राधाकृष्णे प्रेम याँर, सेइ बड़ धनी ।।'*
_(श्रीरायरामानन्द-संवाद)_
इसी
संवाद का निरूपण करते हुए भक्तियोगरस के अवतार जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु
जी महाराज अपने _'राधा गोविन्द गीत'_ (दोहा 5593, 5598) में गाते हैं :
*'सर्वश्रेष्ठ धन कौन गोविन्द राधे । राय कहें कृष्णप्रेमधन है बता दे ।।*
*सर्वश्रेष्ठ स्मरण कौन गोविन्द राधे । राय कहें कृष्णगुण, लीला बता दे ।।'*
उस सबसे बड़े धन की प्राप्ति करने के
लिए ही हमें साधना करनी है, यद्यपि वह कृपासाध्य है, साधनसाध्य नहीं है
तथापि उस कृपा की प्राप्ति के लिए हमें अपने अंतःकरण को निर्मल बनाना होगा,
जिसके लिए उनके नाम, गुण, लीला, धाम आदि का परम निष्कामभावयुक्त होकर
रूपध्यानपूर्वक संकीर्तन सबसे सरल साधन है. यह संकीर्तन बड़े से बड़े
पापत्माओं के पाषाण हृदय में भी भगवद्-रस का संचार कर देता है. श्री कृपालु
महाप्रभु जी की _'राधा गोविन्द गीत'_ (दोहा 4613, 4506) गाती है :
*'बार बार पढ़ो सुनो गोविन्द राधे । हरि का चरित्र प्रेम पैदा करा दे ।।*
*कभु राधे कभु श्याम गोविन्द राधे । बारी बारी ते दोनों के गुन गा दे ।।'*
कलियुग में हरिनाम संकीर्तन ही सार है, और दूसरा कुछ सार नहीं है.
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