एक
व्यक्ति तौलिया लपेटे समुद्र के किनारे चहल–कदमी कर रहा था। कभी वह लहरों
के निकट जाता अौर फिर पीछे हट जाता, एेसा करते करते उसे सुबह से शाम हो गयी
तब एक सज्जन जो उसे पीछे अपने घर की छत से देख रहेथे अाए अौर पूछे – क्या
समस्या है? क्या मैं अापकी कुछ सहायता कर सकता हूँ?
तब उस व्यक्ति ने कहा, मुझे समुद्र में स्नान करना है अौर मैं लहरों के रुकने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
क्या एेसा होने वाला है?
क्या समुद्र की लहरे कभी रुकेंगी?
यही स्थिति इस भौतिक जगत् की है। इस जगत् की समस्याएँ समुद्र की लहरों के समान हैं जो कभी रुकने वाली नहीं हैं।
इस
भौतिक जगत् को दु:खालयम कहा गया है, जैसे हिमालय हिम से भरा रहता है,
पुस्तकालय पुस्तकों से, भोजनालय भोजन से – उसी प्रकार इस भौतिक जगत् में
दु:खों का अाना–जाना तो चलता ही रहेगा।
यदि
कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं इस समस्या के समाधान के बाद भगवान् में मन
लगाऊँगा या अब उस समस्या के समाप्त होने पर तो वह अपने अाप को ही धोखा दे
रहा है क्योंकि जब तक हम इस भौतिक जगत् में हैं, समस्यायेंतो रहेंगी ही।
यदि हम अपना पूरा ध्यान समस्याअों पर ही लगाकर रखेंगे तो अपना मुख्य कार्य
भूल जायेंगे अौर वह है कृष्णभावनाभावित बनना। भगवान् के विषय में चर्चा
करने की जगह हम समस्याअों के बारे में ही सोचेंगे अौरबाते करेंगे। अौर
रहस्य तो यह है कि जब हम अपने मन को भगवान् में लगाते हैं तो इस जगत् की
समस्याअों से प्रभावित नहीं होती, समस्याएँ तो अायेंगी परन्तु वह हमारे मन
को व्यथित नहीं कर पायेंगी।
इसलिए
हमें यह समझना होगा कि समस्याएँ हों या न हों हमें अपना कीमती समय भगवान्
के चिन्तन का अभ्यास करने में अवश्य लगाना है तब ही हमेशा के लिए हम इस
भौतिक जगत् से मुक्त होकर वैकुण्ठ पहुँच पायेंगे जहाँकोई कुण्ठा या चिन्ता
नहीं होती। होता है तो केवल भगवान् के सानिध्य में असीम अानंद। हरे कृष्ण।
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