Friday, 13 November 2015

यह जीवन सात दिन है

जीना मारना सब इन सात दिन में है
सोमवारमंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार, रविवार. इन्ही साठ दिन में जीवन है और आने वाले सात दिन में ही मृत्यु आने वाली है।
क्युकी आठवाँ दिन तो आता ही नहीं
गोवर्धन-धारण की कथा तो सभी को ज्ञात ही है। आनंदकंद, ब्रजचंद, मुरलीधर ने अपनी कनिष्ठिका पर गोवर्धन पर्वत को एक पुष्प के समान उठा लिया और सात दिनों तक उसे धारण कर ब्रजवासियों की रक्षा की और इन्द्र का अभिमान नष्ट किया।

कन्हैया के गिरि-गोवर्धन को उठा लेने पर गोपालों ने विचार किया कि छोटो सो कन्हैया थक जायेगो सो सभी ने अपनी-अपनी लाठी पर्वत के नीचे लगा दी ताकि पर्वत का भार अकेले कन्हैया को उठाने से विशेष श्रम न हो और कन्हैया से बोले कि - "अब, तू नैंक विश्राम कर लै, उँगरिया हटाय लै, हमने लठिया लगाय दई है, अब हम सम्हार लंगे"।
नन्दनन्दन बोले - "ठीक है भैया ! मेरी ऊ उंगरिया में दर्द है रहयो है, तुम सम्हारे हो तो अब कोऊ चिंता की बात नाँय।"
किन्तु यह क्या? मुरलीधर के उंगली तनिक नीचे करते ही पर्वत का भार असहनीय हो गया और भय के कारण गोप पुकार उठे - "अरे लाला कन्हैया ! जल्दी उंगरिया लगा, नाँय तो जै पर्वत अभी हम सबन लैके धँस जायेगो, तेरी उंगरिया की हू बहुत आवश्यकता है, संतुलन के काजे; वैसे तो हमने सम्हार ही लियो है"। 
यह संसार गोवर्धन पर्वत के समान है जिसे मेरे ठाकुर जी अपनी कनिष्ठिका उँगली पर धारण करते है, उन्होंने कृपापूर्वक हमें मान देने के लिये हमसे लाठी लगवा रखी है फ़लस्वरूप हम समझते हैं कि इसे हमने ही उठा रखा है। हमें स्मरण रखना है कि यह हमारा परम सौभाग्य है कि हम सातों दिन [पूरा मानव जन्म] अपने प्राणप्रिय प्रभु को निहारते हुए उनकी परम करूणा का पात्र बनकर कर्मरूपी लाठी लगाकर सुरक्षित रह सकते हैं परन्तु वास्तव में तो सारा भार उन्होंने ही उठा रखा है।
"गो" का अर्थ है ज्ञान और भक्ति। ज्ञान और भक्ति को बढ़ाने वाली लीला ही गोवर्धन-लीला है। इन्द्रियाँ जब ज्ञान और भक्ति की ओर बढ़ने लगती हैं तो वासनाएं बाधक बनकर खड़ी हो जाती है और साम-दाम-दन्ड-भेद के द्वारा बुद्धि को भ्रमित करतीं हैं कि यह मार्ग उचित नहीं क्योंकि श्रीहरि-विमुख न होने से उन्हें यह देह छोड़नी होगी। इन्द्रियों की वासना-वर्षा के समय सदग्रन्थ और संतों का संग, वासना से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है। जीव लकड़ी का आधार लेता है किन्तु प्रभु का आधार लेने से ही मार्ग निष्कंटक होगा। यह संसार-रुपी गोवर्धन प्रभु के सहारे ही है। केन्द्र में श्रीहरि का आधार होने के कारण आनन्द ही आनन्द है। दु:ख में, विपत्ति में एकमात्र प्रभु का ही आश्रय लेना चाहिये जैसे सभी गोप-ग्वाल अन्य देवों का सहारा त्यागकर प्रभु श्रीकृष्ण की शरण हो गये तो उनका सारा भार अकारणकरुणावरुणालय गिरिधारी ने उठा लिया।
"कोई तन दु:खी, कोई मन दु:खी, चिन्ता-चित्त उदास।
थोड़े-थोड़े सब दु:खी, सुखी श्याम के दास"॥
जय जय श्री राधे !

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