भगवान् उस हृदय में रहते हैं जिस हृदय में भाव योग से सफाई की गयी हो।
एक बार ब्रह्मा जी ने प्रभु से पूछा कि आप कहाँ रहते हो ?
कोई कहता है कि भगवान् बैकुण्ठ में रहते हैं और कोई कहता है कि प्रभु धाम में रहते हैं।
भगवान् उसके हृदय में रहते हैं जिस हृदय में भाव योग से उस हृदय की सफाई की गयी हो। अच्छी भावनाओं से हृदय को बुहारा गया हो। निर्मल मन जन सों मोहि पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा।
अगर तुम भगवान् से मिलना चाहते हो तो तुम कहीं मत जाओ। सिर्फ अपने मन को साफ करके सुंदर भावनाओं से सजा दो। प्रभु अपने आप आ जायेंगे। रूप गोस्वामी जी ने भक्ति के 64 अंग बताये हैं, परन्तु इतने अंगों की साधना कौन कर सकेगा ? धाम निवास करने से, भक्त संग करने से, या नाम निष्ठा से 64 अंग पूरे हो जाते हैं। इन सभी क्रियाओं में भाव का होना आवश्यक है। भाव के बिना कोई भी साधन भक्ति नहीं देगा।
इस शरीर को भगवान् का मन्दिर समझो। चराचर सब भगवान् का निवास स्थल है। तुलसी दास जी ने कहा था कि "तुलसी या संसार में सबसे मिलिये धाय, ना जाने केहि बेष में नारायण मिल जाँय"। सर्वत्र प्रभु को देखो। प्रभु ही अनेक रूपों में हमारे सामने स्थित हैं। हर प्राणी को पवित्र दृष्टि से देखो। हर प्राणी का सम्मान करो। ये ही भगवान् की सच्ची पूजा है।
पता नहीं किस रूप में प्रभु के दर्शन हो जाँय ? जिन प्रभु की चितवन में इतना चमत्कार है कि जरा सा देखने मात्र से ही अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना हो जाती है, उनकी शक्ति का कोई क्या अनुमान लगा सकता है ? भक्त दीवाना होता है और होना भी चाहिए। क्योंकि जो अखिल ब्रह्माण्ड नायक है उसे पाना कोई खेल थोड़े ही है। भक्त न कहीं अच्छा देखता है और न कहीं बुरा देखता है। भक्त सबमें एक तत्व देखता है। भक्त अपना ध्यान केवल प्रभु के श्री चरणों में केंद्रित रखता है।
अपने इष्ट की स्मृति बनी रहे, इससे बड़ा और कोई साधन नहीं है। श्री भगवान् स्मृति के बिना सब साधन व समस्त कर्म व्यर्थ हैं। श्री भगवान् स्मृति की डोर ऐसी अनंत है कि उससे स्वयं श्री भगवान् बंधे चले आते हैं और फिर कभी नहीं जाते।"
एक बार ब्रह्मा जी ने प्रभु से पूछा कि आप कहाँ रहते हो ?
कोई कहता है कि भगवान् बैकुण्ठ में रहते हैं और कोई कहता है कि प्रभु धाम में रहते हैं।
भगवान् उसके हृदय में रहते हैं जिस हृदय में भाव योग से उस हृदय की सफाई की गयी हो। अच्छी भावनाओं से हृदय को बुहारा गया हो। निर्मल मन जन सों मोहि पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा।
अगर तुम भगवान् से मिलना चाहते हो तो तुम कहीं मत जाओ। सिर्फ अपने मन को साफ करके सुंदर भावनाओं से सजा दो। प्रभु अपने आप आ जायेंगे। रूप गोस्वामी जी ने भक्ति के 64 अंग बताये हैं, परन्तु इतने अंगों की साधना कौन कर सकेगा ? धाम निवास करने से, भक्त संग करने से, या नाम निष्ठा से 64 अंग पूरे हो जाते हैं। इन सभी क्रियाओं में भाव का होना आवश्यक है। भाव के बिना कोई भी साधन भक्ति नहीं देगा।
इस शरीर को भगवान् का मन्दिर समझो। चराचर सब भगवान् का निवास स्थल है। तुलसी दास जी ने कहा था कि "तुलसी या संसार में सबसे मिलिये धाय, ना जाने केहि बेष में नारायण मिल जाँय"। सर्वत्र प्रभु को देखो। प्रभु ही अनेक रूपों में हमारे सामने स्थित हैं। हर प्राणी को पवित्र दृष्टि से देखो। हर प्राणी का सम्मान करो। ये ही भगवान् की सच्ची पूजा है।
पता नहीं किस रूप में प्रभु के दर्शन हो जाँय ? जिन प्रभु की चितवन में इतना चमत्कार है कि जरा सा देखने मात्र से ही अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना हो जाती है, उनकी शक्ति का कोई क्या अनुमान लगा सकता है ? भक्त दीवाना होता है और होना भी चाहिए। क्योंकि जो अखिल ब्रह्माण्ड नायक है उसे पाना कोई खेल थोड़े ही है। भक्त न कहीं अच्छा देखता है और न कहीं बुरा देखता है। भक्त सबमें एक तत्व देखता है। भक्त अपना ध्यान केवल प्रभु के श्री चरणों में केंद्रित रखता है।
अपने इष्ट की स्मृति बनी रहे, इससे बड़ा और कोई साधन नहीं है। श्री भगवान् स्मृति के बिना सब साधन व समस्त कर्म व्यर्थ हैं। श्री भगवान् स्मृति की डोर ऐसी अनंत है कि उससे स्वयं श्री भगवान् बंधे चले आते हैं और फिर कभी नहीं जाते।"
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