Wednesday, 16 December 2015

इस भौतिक तन , और लौकिक धन

शास्त्र व सन्त कहते हैं कि ,
इस भौतिक तन , और लौकिक धन की , सुन्दरता व आकर्षण तो क्षणिक व अस्थायी हैं ,
ये तो हर दिन और हरपल बदलते रहे हैं ,  बदल रहे हैं , और बदलते ही रहेंगे ।
हम मनुष्यों के पास केवल एक मन ही , ऐसी निधि है , जो कि बहुत जल्दी नहीं बदलता , अगर हम विवेक से काम ले कर अपने मन को , एक बार अपने हित के कामों में लगा लें तो , यह अंत तक हमारा हित साधता रहेगा और अगर अविवेक का आश्रय ले लिया तो फिर इसको जल्दी से बदल पाना अगर असम्भव नहीं तो , बहुत ही मुश्किल है और फिर यही मन हमारे लिए नर्क का रास्ता खोल कर तैयार बैठा रहता है ,
इसलिए कहा जाता है कि , हमारे पास एक मन ही ऐसा है जो अंत समय तक करीब - करीब एक समान बना रहता है , 

तन और धन की सुंदरता की तरह जल्दी से बदलता नहीं , 
जिसका मन बुरा व कलुषित है , उसका अंत तक बुरा और कलुषित ही और जिसका निर्मल व सात्विक है ,. उसका अंत तक उसका हितैषी ही ।
इसीलिए तो संत और सारे शास्त्र , हम संसारियों को एक मत से यह कह कर , आगाह करते हैं कि , 

बचपन से ही , मन पर विशेष ध्यान दो , सुन्दर तन और अकूत धन जीव की कोई खास बडी उपलब्धि नहीं , बल्कि जीव की जो सबसे बडी उपलब्धि है , वह है उसका निर्मल मन , क्योंकि धन की प्राप्ति तो जीव को उसके प्रारब्ध से हो जाती है , उसमें व्यक्ति का प्रयास कोई खास काम नहीं करता ,
धन प्राप्ति में जीव अपने स्तर पर स्वतंत्र नहीं है , लेकिन मन के मामले में जीव स्वतंत्र है ,
मन पर प्रारब्ध का कोई जोर नहीं होता , 

इसलिए अगर जीव चाहे तो अपने मन को अपने हिसाब से ढाल सकता है और अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण इसी जन्म में कर सकता है ,
निर्मल मन उस मंदिर के समान होता है, जिसकी कि तलाश भगवान को भी रहती है कि, कोई निर्मल मन वाला महापुरुष मिल जाए तो मैं जाकर उसके हृदयासन पर अपना आसन लगा लूँ  और उसके निर्मल भावों का रसास्वादन करूँ।

( संत तुलसीदास जी लिखा है )

निर्मल मन जन सो मोहि भावा ,  मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।

संत और शास्त्र तो यहां तक कहते हैं कि, संसार में धन - सम्पदा और सुन्दरता से सम्पन्न व्यक्ति मिल जाना जितना अधिक आसान व सुलभ है , निर्मल मन वाले व्यक्ति का मिलना उतना ही दुर्लभ ।
लाखों करोडों में कोई इक्का - दुक्का ही व्यक्ति ऐसा दिखलाई देता है, जिसने कि अपने मन को रागाद्वेष व काम - क्रोध से बचा कर रखा हो और अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर लिया हो जिसको कि, भगवान ने अपने लिए रहने के लिए चुना हो, 

जैसे कि मीरा - सूरदास - नरसी - कबीर और तुलसी का देख कर चुना ,

 मन प्रसन्न हो , स्वस्थ तन , इच्छा होंय समाप्त।
होंगी , तब ही भजन हो , तभी हरि हों प्राप्त।।
क्योंकि तभी हो सहजता , तभी जीव निर्भीक।
भजन में " रोटीराम " ना , भौतिक सुख - दुख ठीक।।

यह मानव जन्म हमको चौरासी लाख यौनियां भोग कर मिला है , 

इसके मिलने का हेतु  भोग नहीं , वल्कि भजन है ,
भोगों के लिए तो पशुयोनि होती है ,

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