भगवान श्रीकृष्ण को गायों से बहुत अधिक प्रेम व लगाव था.
गोकुल में गायों का जन्म भी उनके अनेक जन्मों के पुण्य का परिणाम था.
वे कितनी भाग्यशाली थी कि उन्हें श्रीकृष्ण का पुचकार भरा प्रेम मिलता था. बालक
श्रीकृष्ण उन गायों को अपने कोमल हाथों से सहलाते थे. अपने वस्त्र से ही उन गायों की धूल साफ़ करते. उनका गऊ प्रेम देखते ही बनता था. उन गायों को भी बालक श्रीकृष्ण को देखे बिना चैन नही मिलता था.
भोर होते ही श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा से नन्दभवन के मुख्य दरवाजे की तरफ़ टकटकी लगाये देखा करती. ताकि श्रीकृष्ण के दर्शन कर तृप्त हो सकें. जब भी बालक श्रीकृष्ण नन्दभवन से निकलकर गोशाला में जाते गाय उनके शरीर को अपनी जीभ से चाट-चाटकर अपना सम्पूर्ण वात्सल्य उनके ऊपर उड़ेलती रहती.
यह गोकुल की गाय मईया यशोदा से कम भाग्यशाली नही थी क्योंकि उन्हें भी बालक कृष्ण को अपना दूध पिलाने का अवसर जो प्राप्त हो रहा था और बदले में उन्हें कान्हा का असीम स्नेह मिल रहा था. कान्हा सभी गायों को अपनी माँ की भाँति प्रेम करते थे. इसीलिये जैसे ही उन्हें मौका मिलता उनके पास चले जाते और उनके साथ खूब लाड़ लड़ाते.
एक दिन भोर होते ही कान्हा नन्दभवन से निकलकर सीधा गोशाला में पहुँच गये. वहाँ पर एक गाय उन्हें अपना दूध पिलाने के लिये उनकी प्रतिक्षा कर रही थी.
वात्सल्य-स्नेह से उस गाय का दूध अपने आप झरता जा रहा था. वह वात्सल्य वश व बालक श्रीकृष्ण के दर्शन के हेतु एकटक दृष्टि नन्दभवन दरवाजे पर लगाये थी कि कब कान्हा बाहर निकले और वह उन्हें अपना दूध पिलाकर अपना जीवन सार्थक कर सके. अब कान्हा भी उसके पवित्र प्रेम की उपेक्षा भला कैसे करते !
वह नन्द भवन से निकलकर गोशाला में सीधे उस गाय के पास पहुँचे और उसके थन में मुँह लगाकर लगे उसका दूध पीने लगे. इधर कान्हा तो दुग्धपान का आनन्द ले रहे थे.
वहाँ नन्दभवन में मईया यशोदा बालक कृष्ण को ढूंढ़ कर परेशान हो रही थी. मईया यशोदा जी कन्हा को चारों तरफ़ देख रही थीं.
वे बार-बार कान्हा..कान्हा करके कान्हा को पुकार रही थीं. कान्हा ! ओ कान्हा! तू कहाँ गया, अरे जल्दी से आ भी जा! मैं कब से तेरी प्रतीक्षा कर रही हूँ, लेकिन जब कन्हा होता तब न सुनता, वह तो अपनी गाय माँ का दूध पी रहा था. माता यशोदा उसे पुकारती हुई सोच रही थी, पता नही कन्हैया कहाँ चला गया. उसने अभी तक कलेवा (सुबह का भोजन) भी नही किया है.
थक हारकर उन्होंने बालक कृष्ण को बाहर ढूंढ़ना शुरु किया.
उन्होंने खिड़की से बाहर झांककर देखा, तो चकित होकर देखती ही रह गई.
कान्हा तो अपनी गोमाता के थन में मुँह लगाकर दूध पी रहा है.
गाय प्रेम व वात्सल्य से कन्हैया का सिर चाट रही है.
यशोदा मैया ने कहा कि - हे गोमाता ! तू धन्य है !
मैं तो अभी तक अपने कान्हा के कलेवा की चिन्ता कर रही थी
और तूने तो उसे दूध भी पिला दिया. मैं तुम्हें शत-शत नमन करती हूँ.
क्रमश:……………
यहाँ कान्हा की अदभुत गौ प्रेम की लीला का अद्भुत और विलक्षण द्रश्य है,
हे कृष्णा....
गोकुल में गायों का जन्म भी उनके अनेक जन्मों के पुण्य का परिणाम था.
वे कितनी भाग्यशाली थी कि उन्हें श्रीकृष्ण का पुचकार भरा प्रेम मिलता था. बालक
श्रीकृष्ण उन गायों को अपने कोमल हाथों से सहलाते थे. अपने वस्त्र से ही उन गायों की धूल साफ़ करते. उनका गऊ प्रेम देखते ही बनता था. उन गायों को भी बालक श्रीकृष्ण को देखे बिना चैन नही मिलता था.
भोर होते ही श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा से नन्दभवन के मुख्य दरवाजे की तरफ़ टकटकी लगाये देखा करती. ताकि श्रीकृष्ण के दर्शन कर तृप्त हो सकें. जब भी बालक श्रीकृष्ण नन्दभवन से निकलकर गोशाला में जाते गाय उनके शरीर को अपनी जीभ से चाट-चाटकर अपना सम्पूर्ण वात्सल्य उनके ऊपर उड़ेलती रहती.
यह गोकुल की गाय मईया यशोदा से कम भाग्यशाली नही थी क्योंकि उन्हें भी बालक कृष्ण को अपना दूध पिलाने का अवसर जो प्राप्त हो रहा था और बदले में उन्हें कान्हा का असीम स्नेह मिल रहा था. कान्हा सभी गायों को अपनी माँ की भाँति प्रेम करते थे. इसीलिये जैसे ही उन्हें मौका मिलता उनके पास चले जाते और उनके साथ खूब लाड़ लड़ाते.
एक दिन भोर होते ही कान्हा नन्दभवन से निकलकर सीधा गोशाला में पहुँच गये. वहाँ पर एक गाय उन्हें अपना दूध पिलाने के लिये उनकी प्रतिक्षा कर रही थी.
वात्सल्य-स्नेह से उस गाय का दूध अपने आप झरता जा रहा था. वह वात्सल्य वश व बालक श्रीकृष्ण के दर्शन के हेतु एकटक दृष्टि नन्दभवन दरवाजे पर लगाये थी कि कब कान्हा बाहर निकले और वह उन्हें अपना दूध पिलाकर अपना जीवन सार्थक कर सके. अब कान्हा भी उसके पवित्र प्रेम की उपेक्षा भला कैसे करते !
वह नन्द भवन से निकलकर गोशाला में सीधे उस गाय के पास पहुँचे और उसके थन में मुँह लगाकर लगे उसका दूध पीने लगे. इधर कान्हा तो दुग्धपान का आनन्द ले रहे थे.
वहाँ नन्दभवन में मईया यशोदा बालक कृष्ण को ढूंढ़ कर परेशान हो रही थी. मईया यशोदा जी कन्हा को चारों तरफ़ देख रही थीं.
वे बार-बार कान्हा..कान्हा करके कान्हा को पुकार रही थीं. कान्हा ! ओ कान्हा! तू कहाँ गया, अरे जल्दी से आ भी जा! मैं कब से तेरी प्रतीक्षा कर रही हूँ, लेकिन जब कन्हा होता तब न सुनता, वह तो अपनी गाय माँ का दूध पी रहा था. माता यशोदा उसे पुकारती हुई सोच रही थी, पता नही कन्हैया कहाँ चला गया. उसने अभी तक कलेवा (सुबह का भोजन) भी नही किया है.
थक हारकर उन्होंने बालक कृष्ण को बाहर ढूंढ़ना शुरु किया.
उन्होंने खिड़की से बाहर झांककर देखा, तो चकित होकर देखती ही रह गई.
कान्हा तो अपनी गोमाता के थन में मुँह लगाकर दूध पी रहा है.
गाय प्रेम व वात्सल्य से कन्हैया का सिर चाट रही है.
यशोदा मैया ने कहा कि - हे गोमाता ! तू धन्य है !
मैं तो अभी तक अपने कान्हा के कलेवा की चिन्ता कर रही थी
और तूने तो उसे दूध भी पिला दिया. मैं तुम्हें शत-शत नमन करती हूँ.
क्रमश:……………
यहाँ कान्हा की अदभुत गौ प्रेम की लीला का अद्भुत और विलक्षण द्रश्य है,
हे कृष्णा....
No comments:
Post a Comment