Thursday 7 July 2016

जहाँ कृष्ण है वही विजय है, वही गुण है,

अगर अपने जीवन को उत्सव बनाना चाहते है तो जहाँ गोविन्द चर्चा है वहाँ बैठो।
"कृष्ण भक्ति रसभावितामति क्रियताम् यदि कुतोपि लभ्यते"
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अरे,श्री कृष्ण भक्तिरसभावित मति यदि वैश्या के घर से भी मिलती हो तो वहाँ बैठो।
और विषयों में आसक्त करने वाली बात किसी मन्दिर और यज्ञशाला में भी होती हो तो वहाँ का मुँह मत देखो।
चार माला पहनकर भी ठाकुर से दूर ले जाये इस से बड़ा आपका कोई दुश्मन नहीं हो सकता और
चार गली देने के बाद भी अगर गोविन्द का स्मरण करवा दे तो इससे बड़ा मित्र नहीं हो सकता ।
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भक्तों से बढ़िया आपका कोई दोस्त नहीं हो सकता क्योंकि उनको आपसे कृष्ण लेने देने के अलावा कुछ नहीं चाहिये।।
अगर आपके दोस्त भक्त नहीं है तो या उन्हें भक्त बनाइये या फिर उन्हें छोड़ दे। क्योंकि ऐसा दोस्त चाहे जितना मर्ज़ी आपका साथ दे लेकिन आपका मनुष्य जन्म व्यर्थ कर देंगे जैसे की दुर्योधन ने कर्ण का किया।
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लेकिन वही अगर आपके दोस्त भक्त है तो आपकी भौतिक सहायता भी करेंगे और आपका जन्म भी सार्थक करेंगे। जैसे की श्री हनुमान और विभीषण।।
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यदि आप कृष्ण को चाहते हैं,
कृष्ण के अलावा और कुछ नहीं चाहना ,
यदि आप के पास कृष्ण है,
तो आप के पास सब कुछ है
यदि आप के पास सामग्री संपन्नता है ,
परन्तु कृष्ण नहीं ,
तो आप दिवालिया है कंगाल है आप
जहाँ कृष्ण है वही विजय है, वही गुण है,
वही श्री है, वही सोभाग्य है, सफलता है
सब कुछ वही है ।
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कृष्ण को केंद्रित करते हुए जीवन बिताये फिर देखे कृष्ण आपकी हर कदम पर रक्षा करेंगे कभी अपने भक्तों द्वारा कभी आपको सही प्रेरणा देकर,
कभी क़िसी और को निमीत्त बनाकर।।
अगर वो आपको पहाड़ की चोटी से फेंकेंगे तो यां तो उड़ना सिखा देंगे या फिर खुद पकड़ लेंगे लेकिन कभी गिरने नहीं देंगे।।
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"सोइ जानहि जेहि देहु जनाई
, जानत तुमहिं तुमहि हुई जाई"
कितना सुन्दर और सत्य अर्थ है मानस की सिर्फ इन दो �

Monday 27 June 2016

द्रुढ- विश्वास


             एक आदमी की नई नई शादी हुई और वो अपनी पत्नि के साथ वापस आ रहे थे! रास्ते में वो दोनों एक बडी झील को नाव के द्वारा पार कर रहे थे, तभी अचानक एक भयंकर तूफ़ान आ गया ! वो आदमी वीर था लेकिन औरत बहुत डरी हुई थी क्योंकि हालात बिल्कुल खराब थे! नाव बहुत छोटी थी और तूफ़ान वास्तव में भयंकर था और दोनों किसी भी समय डूब सकते थे!
        लेकिन वो आदमी चुपचाप, निश्चल और शान्त बैठा था जैसे कि कुछ नहीं होने वाला हो!
          औरत डर के मारे कांप रही थी और वो बोली "क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा" ये हमारे जीवन का आखरी क्षण हो सकता है! ऐसा नहीं लगता कि हम दूसरे किनारे पर कभी पहुंच भी पायेंगे! अब तो कोई चमत्कार ही हमें बचा सकता है वर्ना हमारी मौत निश्चित है! क्या तुम्हें बिल्कुल डर नहीं लग रहा? कहीं तुम पागल वागल या पत्थर वत्थर तो नहीं हो?
          पती खूब हँसा और एकाएक उसने म्यान से 🗡तलवार निकाल ली ? औरत अब और परेशान हो गई कि वो क्या कर रहा था? तब वो उस नंगी तलवार को पत्नी की गर्दन के पास ले आया, इतना पास कि उसकी गर्दन और तलवार के बीच बिल्कुल कम फर्क बचा था क्योंकि तलवार लगभग उसकी गर्दन को छू रही थी!
वो अपनी पत्नि से बोला
"क्या तुम्हें डर लग रहा है"?
पत्नि खूब हँसी और बोली "जब तलवार तुम्हारे हाथ में है तो मुझे क्या डर"? मैं जानती हुँ कि तुम मुझे बहुत प्यार करते हो !
उसने तलवार वापिस म्यान में डाल दी और बोला कि "यही मेरा जवाब है" !
मैं जानता हुँ कि भगवन श्रीकृष्ण मुझे बहुत प्यार करते है और ये तूफ़ान उसके हाथ में है ! इस लिए जो भी होगा अच्छा ही होगा ! अगर हम बच गये तो भी अच्छा और अगर नहीं बचे तो भी अच्छा, क्योंकि सब कुछ उस 🙏भगवान🙏 के हाथ में है और वो आपने भक्तों के साथ कभी कुछ भी गलत नहीं कर सकते !
वो जो भी करेगा हमारे भले के लिए करेंगे।
ये द्रुढविश्वास है हमे......!!
*शिक्षा* :-- हमेशा *विश्वास* उसपर बनाये रक्खो
       ! "व्यक्ति को हमेशा उस परम-पिता परमात्मा पर विश्वास रखना चाहिये जो हमारे पूरे जीवन को बदल देता है "!.
🙏           हरी बोल          

Sunday 26 June 2016

भक्त के वश में होकर भगवान ने दी गवाही.....

बङी मनोरम कथा है हृदय से पढ कर प्रभू के श्री चरणों में नमन अवश्य करिये ।।

श्रीराधेश्रीकृष्णा

एक पंडितजी थे वो श्रीबांके बिहारी लाल को बहुत मानते थे सुबह-शाम बस ठाकुरजी ठाकुरजी करके व्यतीत होता ...पारिवारिक समस्या के कारण उन्हें धन की आवश्यकता हुई ...तो पंडित जी सेठ जी के पास धन मांगने गये ...सेठ जी धन दे तो दिया पर उस धन को लौटाने की बारह किस्त बांध दी ...पंडितजी को कोई एतराज ना हुआ ...उन्होंने स्वीकृति प्रदान कर दी ....अब धीरे-धीरे पंडितजी ने ११ किस्त भर दीं एक किस्त ना भर सके ...इस पर सेठ जी १२ वीं किस्त के समय निकल जाने पर पूरे धन का मुकद्दमा पंडितजी पर लगा दिया कोर्ट-कचहरी हो गयी ...जज साहब बोले पंडितजी तुम्हारी तरफ से कौन गवाही देगा ....इस पर पंडितजी बोले की मेरे ठाकुर बांकेबिहारी लाल जी गवाही देंगे ...पूरा कोर्ट ठहाकों से भर गया ...अब गवाही की तारीख तय हो गयी ...पंडितजी ने अपनी अर्जी ठाकुरजी के श्रीचरणों में लिखकर रख दी अब गवाही का दिन आया कोर्ट सजा हुआ था वकील, जज अपनी दलीलें पेश कर रहे थे पंडित को ठाकुर पर भरोसा था ....जज ने कहा पंडित अपने गवाह को बुलाओ पंडित ने ठाकुर जी के चरणों का ध्यान लगाया तभी वहाँ एक वृद्व आया जिसके चेहरे पर मनोरम तेज था उसने आते ही गवाही पंडितजी के पक्ष में दे दी ...वृद्व की दलीलें सेठ के वहीखाते से मेल खाती थीं की फलां- फलां तारीख को किश्तें चुकाई गयीं अब पंडित को ससम्मान रिहा कर दिया गया ...ततपश्चात जज साहब पंडित से बोले की ये वृद्व जन कौन थे जो गवाही देकर चले गये ....तो पंडित बोला अरे जज साहब यही तो मेरा ठाकुर था .....जो भक्त की दुविधा देख ना सका और भरोसे की लाज बचाने आ गया ...इतना सुनना था की जज पंडित जी के चरणों में लेट गया .....और ठाकुर जी का पता पूछा ...पंडित बोला मेरा ठाकुर तो सर्वत्र है वो हर जगह है अब जज ने घरबार काम धंधा सब छोङ ठाकुर को ढूंढने निकल पङा ...सालों बीत गये पर ठाकुर ना मिला ...अब जज पागल सा मैला कुचैला हो गया वह भंडारों में जाता पत्तलों पर से जुठन उठाता ...उसमें से आधा जूठन ठाकुर जी मूर्ति को अर्पित करता आधा खुद खाता ...इसे देख कर लोग उसके खिलाफ हो गये उसे मारते पीटते ....पर वो ना सुधरा जूठन बटोर कर खाता और खिलाता रहा ...एक भंडारे में लोगों ने अपनी पत्तलों में कुछ ना छोङा ताकी ये पागल ठाकुरजी को जूठन ना खिला सके पर उसने फिर भी सभी पत्तलों को पोंछ-पाछकर एक निवाल इकट्ठा किया और अपने मुख में डाल लिया ....पर अरे ये क्या वो ठाकुर को खिलाना तो भूल ही गया अब क्या करे उसने वो निवाला अन्दर ना सटका की पहले मैं खा लूंगा तो ठाकुर का अपमान हो जायेगा और थूका तो अन्न का अपमान होगा ....करे तो क्या करें निवाल मुँह में लेकर ठाकुर जी के चरणों का ध्यान लगा रहा था की एक सुंदर ललाट चेहरा लिये बाल-गोपाल स्वरूप में बच्चा पागल जज के पास आया और बोला क्यों जज साहब आज मेरा भोजन कहाँ है जज साहब मन ही मन गोपाल छवि निहारते हुये अश्रू धारा के साथ बोले ठाकुर बङी गलती हुई आज जो पहले तुझे भोजन ना करा सका ...पर अब क्या करुं ...?
तो मन मोहन ठाकुर जी मुस्करा के बोले अरे जज तू तो निरा पागल हो गया है रे जब से अब तक मुझे दूसरों का जूठन खिलाता रहा ...आज अपना जूठन खिलाने में इतना संकोच चल निकाल निवाले को आज तेरी जूठन सही ...जज की आंखों से अविरल धारा निकल पङी जो रुकने का नाम ना ले रही और मेरा ठाकुर मेरा ठाकुर कहता-कहता बाल गोपाल के श्रीचरणों में गिर पङा और वहीं देह का त्याग कर दिया ....और मित्रों वो पागल जज कोई और नहीं वही (पागल बाबा) थे जिनका विशाल मंदिर आज वृन्दावन में स्थित है तो दोस्तो भाव के भूखें हैं प्रभू और भाव ही एक सार है ...और भावना से जो भजे तो भव से बेङा पार है ...

तो बोलिए आज के आनंद की जय

बोल वृन्दावन बिहारी लाल की जय ...

बांके बिहारी लाल की जय

श्री राधे राधे

हरिबोल

Thursday 23 June 2016

*हरिनाम की महिमा*



यजुर्वेद के कलि संतारण उपनिषद् में कहा गया है–
द्वापर युग के अंत में जब देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी से कलियुग में कलि के प्रभाव से मुक्त होने का उपाय पूछा, तब सृष्टिकर्ता ने कहा-
आदिपुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण से मनुष्य कलियुग के दोषों को नष्ट कर सकता है
नारदजी के द्वारा उस नाम-मंत्र को पूछने पर हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी ने बताया-
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे रामराम राम हरे हरे।।*

*इति षोडषकं नाम्नाम् कलि कल्मष नाशनं |*
*नात: परतरोपाय: सर्व वेदेषु दृश्यते ||*

सोलह नामों वाले महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में कल्मष का नाश करने में सक्षम है|
इस मन्त्र को छोड़ कर कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय चारों वेदों में कहीं भी नहीं है |
*बृहन्नार्दीय पुराण में आता है–*
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं|*
*कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा||*
कलियुग में केवल हरिनाम,से ही उद्धार हो सकता है| हरिनाम के अलावा कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है।
*कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार |*
*नाम हइते  सर्व जगत निस्तार||*
– चैतन्य चरित्रामृत १.१७.२२
कलियुग में तो स्वयं कृष्ण ही हरिनाम के रूप में अवतार लेते हैं|
केवल हरिनाम से ही सारे जगत का उद्धार संभव है
*पद्मपुराण में कहा गया है–*
*नाम: चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह:|*
*पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोSभिन्नत्वं नाम नामिनो:||*
हरिनाम उस चिंतामणि के समान है जो समस्त कामनाओं को पूर्ण सकता है| हरिनाम स्वयं रसस्वरूप कृष्ण ही हैं तथा चिन्मयत्त्व (दिव्यता) के आगार हैं|  हरिनाम पूर्ण हैं, शुद्ध हैं, नित्यमुक्त हैं| नामी (हरि) तथा हरिनाम में कोई अंतर नहीं है|
जो कृष्ण हैं– वही कृष्णनाम है
जो कृष्णनाम है– वही कृष्ण हैं|
श्रीमद्भागवत (१२.३.५१) का कथन है-
यद्यपि कलियुग दोषों का भंडार है तथापि इसमें एक बहुत बडा सद्गुण है।
सतयुग में भगवान के ध्यान (तप) द्वारा, त्रेतायुगमें यज्ञ-अनुष्ठान के द्वारा, द्वापरयुगमें पूजा-अर्चना से जो फल मिलता था, कलियुग में वही पुण्यफल श्रीहरिके नाम-संकीर्तन मात्र से ही प्राप्त हो जाता है।
*राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।*
*सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥*

*– श्रीरामरक्षास्त्रोत्रम्*
*भगवान शिव ने कहा- हे पार्वती !!  मैं निरंतर राम नाम के पवित्र नामों का जप करता हूँ, और इस दिव्य ध्वनि में आनंद लेता हूँ। रामचन्द्र का यह पवित्र नाम भगवान विष्णु के एक हजार पवित्र नामों (विष्णुसहस्त्रनाम) के तुल्य है ।– रामरक्षास्त्रोत्र*
*ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है-*
*सहस्त्र नाम्नां पुण्यानां, त्रिरा-वृत्त्या तु यत-फलम् ।*
*एकावृत्त्या तु कृष्णस्य,नामैकम तत प्रयच्छति ॥*
विष्णु के हजार पवित्र नाम (विष्णुसहस्त्रनाम) जप के द्वारा प्राप्त परिणाम (पुण्य) केवल एक बार कृष्ण के पवित्र नाम जप के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है ।
भक्तिचंद्रिका में हरे कृष्ण महामंत्र का माहात्म्य इस प्रकार वर्णित है-बत्तीस अक्षरों वाला नाम-मंत्र सब पापों का नाशक है, सभी प्रकार की दुर्वासनाओंको जलाने के अग्नि-स्वरूप है, शुद्धसत्त्वस्वरूप भगवद्वृत्ति वाली बुद्धि को देने वाला है, सभी के लिए आराधनीय एवं जप करने योग्य है, सबकी कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।
इस महामंत्र के संकीर्तन में सभी का अधिकार है।
यह मंत्र प्राणिमात्र का बान्धव है, समस्त शक्तियों से सम्पन्न है, आधि-व्याधि का नाशक है।
इस महामंत्र की दीक्षा में मुहूर्त्तके विचार की आवश्यकता नहीं है। इसके जप में बाह्यपूजा की अनिवार्यता नहीं है।
केवल उच्चारण करने मात्र से यह सम्पूर्ण फल देता है।
इस मंत्र के अनुष्ठान में देश-काल का कोई प्रतिबंध नहीं है।
*अथर्ववेद की अनंत संहिता में आता है–*
*षोडषैतानि नामानि द्वत्रिन्षद्वर्णकानि हि |*
*कलौयुगे महामंत्र:सम्मतो जीव तारिणे ||*
सोलह नामों तथा बत्तीस वर्णों से युक्त महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में जीवों के उद्धार का एकमात्र उपाय है|
*अथर्ववेद के चैतन्योपनिषद में आता है–*
*स: ऐव मूलमन्त्रं जपति हरेर इति कृष्ण इति राम इति |*
*भगवन गौरचन्द्र सदैव महामंत्र का जप करते हैं जिसमे पहले ‘हरे’ नाम, उसके बाद ‘कृष्ण’ नाम तथा उसके बाद ‘राम’ नाम आता है।*
*पद्मपुराण में वर्णन आता है–*
*द्वत्रिन्षदक्षरं मन्त्रं नाम षोडषकान्वितं |*
*प्रजपन् वैष्णवो नित्यं राधाकृष्ण स्थलं लभेत् ||*
जो वैष्णव नित्य बत्तीस वर्ण वाले तथा सोलह नामों वाले महामंत्र का जप तथा कीर्तन करते है, उन्हें श्रीराधाकृष्ण के दिव्य धाम गोलोक की प्राप्ति होती है |
विष्णुधर्मोत्तर में लिखा है कि श्रीहरि के नाम-संकीर्तन में देश-काल का नियम लागू नहीं होता है।
जूठे मुंह अथवा किसी भी प्रकार की अशुद्ध अवस्था में भी नाम-जप को करने का कोई भी निषेध नहीं है।
श्रीमद्भागवत महापुराणका तो यहां तक कहना है कि जप-तप एवं पूजा-पाठ की त्रुटियां अथवा कमियां श्रीहरिके नाम- संकीर्तन से ठीक और परिपूर्ण हो जाती हैं।
हरि-नाम का संकीर्त्तन ऊंची आवाज में करना चाहिए |
*जपतो हरिनामानिस्थानेशतगुणाधिक:।* *आत्मानञ्चपुनात्युच्चैर्जपन्श्रोतृन्पुनातपच॥*
हरि-नाम को जपने वाले की अपेक्षा उच्च स्वर से हरि-नाम का कीर्तन करने वाला अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि जपकर्ता केवल स्वयं को ही पवित्र करता है, जबकि नाम- कीर्तनकारी स्वयं के साथ-साथ सुनने वालों का भी उद्धार करता है।
*हरिवंशपुराण का कथन है-*
*वेदेरामायणेचैवपुराणेभारतेतथा।*
*आदावन्तेचमध्येचहरि: सर्वत्र गीयते॥*
वेद , रामायण, महाभारत और पुराणों में आदि, मध्य और अंत में सर्वत्र श्रीहरिका ही गुण- गान किया गया है।
*कलियुग में सिर्फ हरीनाम का उच्चारण समस्त दोषो को नष्ट कर देता है। हरि ऊं
*जय सियाराम जी की सबको*
🕉 *ऊँ राम भद्राय नमः*
*हरे कृष्णा

Wednesday 22 June 2016

अपराध रहित होकर भगवान् का भजन करो

अशेषसंक्लेशशमं विधत्ते गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।*
*कुतः पुनस्तच्चरणारविन्द परागसेवारतिरात्मलब्धा ॥*
                    (भा. ३/७/१४)
जितने प्रकार के क्लेश होते हैं, वे सब केवल भगवान् का गुणानुवाद श्रवण करने मात्र से शान्त हो जाते हैं । ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हो तो कथा सुन लो और अगर भक्ति आ गयी तो फिर कहना ही क्या? संसार का ऐसा कोई कष्ट नहीं है जो भगवान् की भक्ति से दूर न हो जाए । कहीं भगवान के चरणों में रति हो गयी फिर तो क्या कहना? निश्चित रूप से समस्त कष्ट केवल कथा सुनने मात्र से चले जाते हैं ।
*शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषाः ।*
*भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम् ॥*
                     (भा. ३/२२/३७)
शरीर की जितनी बीमारियाँ हैं, मन के रोग, दैवी-कोप, भौतिक-पंचभूतों के क्लेश, सर्दी-गर्मी या सांसारिक-प्राणियों द्वारा प्राप्त कष्ट, सर्प, सिंह आदि का भय; ये सब भगवान् के आश्रय में रहने वाले पर बाधा नहीं करते ।
लेकिन ध्यान रहे कि कथा एवं हरिनाम निरपराध हो एवं गलती से भी कभी किसी वैष्णव का अपराध ना हो, वैष्णव का अपराध तो सपने में भी नहीं सोचना।
नहीं तो सब बेकार है ।
*न भजति कुमनीषिणां स इज्यां*
*हरिरधनात्मधनप्रियो रसज्ञः ।*
*श्रुतधनकुलकर्मणां मदैर्ये*
*विदधति पापमकिञ्चनेषु सत्सु ॥*
                  (भा. ४/३१/२१)
कोई कितनी भी आराधना कर रहा है, भजन कर रहा है लेकिन अगर अकिञ्चन भक्तों का अपराध करता है तो भगवान् उसके भजन को स्वीकार नहीं करते हैं । एक छोटे-से साधक-भक्त से भी चिढ़ते हो तो तुम्हारा सारा भजन नष्ट; फिर चाहे जप-तप कुछ भी करते रहो, उससे कुछ नहीं होगा क्योंकि भगवान् निर्धनों के धन हैं, गरीबों से प्यार करते हैं ।
मनुष्य भक्तों का वैष्णवों का अपराध क्यों करता है?
मद के कारण । विद्या का मद (ज्यादा पढ़ गया तो छोटे लोगों को मूर्ख समझने लगता है); धन का मद (धन-सम्पत्ति ज्यादा बढ़ गयी तो दीनों का तिरस्कार करता है); अच्छे कुल में जन्म का मद (ऊँचे कुल में जन्म हो गया तो अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है और दीन-हीनों की उपेक्षा करता है); इसी तरह से कोई अच्छा कर्म कर लिया तो उसका मद, त्याग-वैराग्य कर लिया तो उससे मद हो जाता है, सांसारिक वस्तुओं में अहंता-ममता के कारण लोग ज्यादा अपराध करते हैं ।
इसलिए अपराध रहित होकर भगवान् का भजन करो, फिर देखो चमत्कार; किसी भी तरह का संकट, क्लेश तुम्हें बाधा नहीं पहुँचा सकेगा ।
 राधे राधे 

Monday 1 February 2016

घनश्याम की शोभा




मेरे घनश्याम की  जुल्फे अजब नागिन-सी काली है। किसी के दिल को डसने के लिये मानों ये पाली हैं। ।
अजायब चाँद सा" मुखडा, दमकती खोर केशर की । सुहाई नील- क्जों से कपोलों की गुलाली है । । नुकीली नासिका थिरकन गजब बेसर के मोती की । लिये बैठा मनो: शुक चोंच मे: मुक्ता की डाली है । निगाहे शान शमसीरें हमारे दिल की कातिल हैं । वहीँ समझेगा इनकी मार जिसने पीर पाली है । दुपट्टा  जर्द लासानी जरी न्क्काश्दारी का । नहीं कुछ तोर रखती जो कमर पर पेंच डालीं है । बनी बनमाल फूलों की फबी है जाके कदमों  तक । फिसल पड़ती है आँखें भी छटा ऐसी निराली है । कदम की छाँह के नीचे खडे बाँकी अदाँ से हैं । मधुर मुरली के रद्गधों से सुरीली धुन सम्हाली है । यही नखरे भरी झांकी हमारे दिल में आ बैठे । तो भर जाये तेरा जलवा जो दिल में जगह खाली है।
श्री राधा रमण परिवार प्रयास
.......जय श्री हरि

Sunday 24 January 2016

कृष्ण लीला ( जब कान्हा के दर्शन को व्याकुल हुई गोमाता )

भगवान श्रीकृष्ण को गायों से बहुत अधिक प्रेम व लगाव था.
गोकुल में गायों का जन्म भी उनके अनेक जन्मों के पुण्य का परिणाम था.
वे कितनी भाग्यशाली थी कि उन्हें श्रीकृष्ण का पुचकार भरा प्रेम मिलता था. बालक
श्रीकृष्ण उन गायों को अपने कोमल हाथों से सहलाते थे. अपने वस्त्र से ही उन गायों की धूल साफ़ करते. उनका गऊ प्रेम देखते ही बनता था. उन गायों को भी बालक श्रीकृष्ण को देखे बिना चैन नही मिलता था.

भोर होते ही श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा से नन्दभवन के मुख्य दरवाजे की तरफ़ टकटकी लगाये देखा करती. ताकि श्रीकृष्ण के दर्शन कर तृप्त हो सकें. जब भी बालक श्रीकृष्ण नन्दभवन से निकलकर गोशाला में जाते गाय उनके शरीर को अपनी जीभ से चाट-चाटकर अपना सम्पूर्ण वात्सल्य उनके ऊपर उड़ेलती रहती.

यह गोकुल की गाय मईया यशोदा से कम भाग्यशाली नही थी क्योंकि उन्हें भी बालक कृष्ण को अपना दूध पिलाने का अवसर जो प्राप्त हो रहा था और बदले में उन्हें कान्हा का असीम स्नेह मिल रहा था. कान्हा सभी गायों को अपनी माँ की भाँति प्रेम करते थे. इसीलिये जैसे ही उन्हें मौका मिलता उनके पास चले जाते और उनके साथ खूब लाड़ लड़ाते.

एक दिन भोर होते ही कान्हा नन्दभवन से निकलकर सीधा गोशाला में पहुँच गये. वहाँ पर एक गाय उन्हें अपना दूध पिलाने के लिये उनकी प्रतिक्षा कर रही थी.

वात्सल्य-स्नेह से उस गाय का दूध अपने आप झरता जा रहा था. वह वात्सल्य वश व बालक श्रीकृष्ण के दर्शन के हेतु एकटक दृष्टि नन्दभवन दरवाजे पर लगाये थी कि कब कान्हा बाहर निकले और वह उन्हें अपना दूध पिलाकर अपना जीवन सार्थक कर सके. अब कान्हा भी उसके पवित्र प्रेम की उपेक्षा भला कैसे करते !
वह नन्द भवन से निकलकर गोशाला में सीधे उस गाय के पास पहुँचे और उसके थन में मुँह लगाकर लगे उसका दूध पीने लगे. इधर कान्हा तो दुग्धपान का आनन्द ले रहे थे.
वहाँ नन्दभवन में मईया यशोदा बालक कृष्ण को ढूंढ़ कर परेशान हो रही थी. मईया यशोदा जी कन्हा को चारों तरफ़ देख रही थीं.
वे बार-बार कान्हा..कान्हा करके कान्हा को पुकार रही थीं. कान्हा ! ओ कान्हा! तू कहाँ गया, अरे जल्दी से आ भी जा! मैं कब से तेरी प्रतीक्षा कर रही हूँ, लेकिन जब कन्हा होता तब न सुनता, वह तो अपनी गाय माँ का दूध पी रहा था. माता यशोदा उसे पुकारती हुई सोच रही थी, पता नही कन्हैया कहाँ चला गया. उसने अभी तक कलेवा (सुबह का भोजन) भी नही किया है.
थक हारकर उन्होंने बालक कृष्ण को बाहर ढूंढ़ना शुरु किया.

उन्होंने खिड़की से बाहर झांककर देखा, तो चकित होकर देखती ही रह गई.
कान्हा तो अपनी गोमाता के थन में मुँह लगाकर दूध पी रहा है.
गाय प्रेम व वात्सल्य से कन्हैया का सिर चाट रही है.
यशोदा मैया ने कहा कि - हे गोमाता ! तू धन्य है !
मैं तो अभी तक अपने कान्हा के कलेवा की चिन्ता कर रही थी
और तूने तो उसे दूध भी पिला दिया. मैं तुम्हें शत-शत नमन करती हूँ.
क्रमश:……………
यहाँ कान्हा की अदभुत गौ प्रेम की लीला का अद्भुत और विलक्षण द्रश्य है,
हे कृष्णा....