Saturday 28 November 2015

***** राधा प्रेम *****


सूर्यदेव राधा जी के कुलदेव हैं ।
राधा जी रोजाना सूर्य को जल देती हैं ।
लेकिन आज राधा जी भाववेश पश्चिम की तरफ जल दे रही हैं,,,,,,
ललिता जी राधा जी से बोली ~ 

हे स्वामिनी जू आप तो बड़ी भोरी हैं सूर्य तो पूर्व से निकले है 
और आप जल पश्चिम की तरफ दे रही हैं ।
राधा जी नेत्रो में करूणाजल भर कर बोली ~ 

ललिते भोरी मैं ना भोरी तो तू है,,,,,
जाने नाय कि मेरा सूर्य तो पश्चिम से निकले है,,,,,

क्योकि पश्चिम की तरफ नंद बाबा को भवन है,,,,,

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राध राधे राधे

Tuesday 24 November 2015

अपने साधनों के अनुसार अर्चाविग्रह की पूजा करने से चूकना नहीं चाहिए ।


भगवद्गीता गीता में कहा गया है कि यदि कोई भक्त भगवान् को पत्ती या थोड़ा जल भी अर्पित करे तो वे प्रसन्न हो जाते हैं ।
भगवान् द्वारा बताया गया यह सूत्र निर्धन से निर्धन व्यक्ति पर लागू होता है।
किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जिनके पास पर्याप्त साधन हों वह भी इसी विधि को अपनाए और भगवान्  को जल तथा पत्ती अर्पित करके उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करे। यदि उसके  पास पर्याप्त साधन हों तो उसे अच्छे अच्छे अलंकरण,  उत्तम फूल तथा भोज्य सामग्री अर्पित करनी चाहिए और सारे उत्सव मनाने चाहिए ।
  ऐसा नहीं है कि वह अपनी  इन्द्रियतृप्ति के लिए अपना सारा धन व्यय कर दे और भगवान् को प्रसन्न करने के लिए थोड़ा जल तथा पत्ती अर्पित करे ।
कृष्ण को पहले अर्पित किये बिना कोई भी भोज्य पदार्थ नही खाना चाहिए ।
ऋतु के अनुसार कृष्ण को ताजे फल तथा अन्न अर्पित करने से चूकना नहीं चाहिए ।
भोजन बन जाने के बाद, जब तक उसे अर्चाविग्रह को अर्पित न कर दिया जाए तब तक उसे किसी  को नही देना चाहिए ।

Wednesday 18 November 2015

हरि व्यापक सर्वत्र समानाः....

गुजरात में नारायण प्रसाद नाम के एक वकील रहते थे। वकील होने के बावजूद भी उन्हें भगवान की भक्ति अच्छी लगती थी। नदी में स्नान करके गायत्री मंत्र का जप करते, फिर कोर्ट कचहरी का काम करते। कोर्ट-कचहरी में जाकर खड़े हो जाते तो कैसा भी केस हो, निर्दोष व्यक्ति को तो हँसते-हँसते छुड़ा देते थे, उनकी बुद्धि ऐसी विलक्षण थी।

एक बार एक आदमी को किसी ने झूठे आरोप में फँसा दिया था। निचली कोर्ट ने उसको मृत्युदंड की सजा सुना दी। अब वह केस नारायण प्रसाद के पास आया।

ये भाई तो नदी पर स्नान करने गये और स्नान कर वहीं गायत्री मंत्र का जप करने बैठ गये। जप करते-करते ध्यानस्थ हो गये। ध्यान से उठे तो ऐसा लगा कि शाम के पाँच बज गये। ध्यान से उठे तो सोचा कि ʹआज तो महत्त्वपूर्ण केस था। मृत्युदंड मिल हुए अपराधी का आज आखिरी फैसले का दिन था। पैरवी करके आखिरी फैसला करना था। यह क्या हो गया !ʹ

जल्दी-जल्दी घर पहुँचे। देखा तो उनके मुवक्किल के परिवार वाले भी बधाई दे रहे हैं, दूसरे वकील भी बधाई देने आये हैं। उनका अपना सहायक वकील और मुंशी सब धन्यवाद देने आये हैं। बोलने लगेः "नारायण प्रसाद जी ! आपने तो गजब कर दिया ! उस मृत्युदंड वाले को आपने हँसते-खेलते ऐसे छुड़ा दिया कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हम आपको बधाई देते हैं।

नारायण प्रसाद ने गम्भीरता से उनका धन्यवाद स्वीकार कर लिया। उनको तो पता था ʹमैं कोर्ट में गया ही नहीं हूँ।ʹ

संध्या करके जो कुछ जलपान करना था किया, थोड़ा टहलकर फिर शय़नखंड में गये। सोचते रहे कि ʹभगवान ने मेरा रूप कैसे बना लिया होगा ?ʹ इसके विषय में सूक्ष्म चिंतन किया। विचार करते-करते नारायण प्रसाद को हुआ कि ʹमुझे आज केस के लिए कोर्ट में जाना था, मुझे पता था और मुझे पता रहे उसके पहले मेरे अंतर्यामी जानते थे। मन में जो भाव आते हैं, उन सारे भावों को समझने वाले भावग्रही जनार्दनः हैं। जहाँ से भाव उठता है वहाँ तो वे ठाकुरजी बैठे हैं।

ʹथोड़ा ध्यान करके जाऊँगाʹ, यह मेरा संकल्प मेरे अंतर्यामी ने जान लिया। वह मेरा अंतरात्मा ही नाराय़ण प्रसाद वकील बन के, केस जिताकर मुझे यश देता है। यह प्रभु की क्या लीला है ! यह सब क्या व्यवस्था है !ʹ - यह विचार करते-करते सो गये।

थोड़ी नींद ली, इतने में उनके कानों में ʹनारायण..... नारायण.... नारायण.... ʹ की आवाज सुनायी दी और वे अचानक उठकर बैठ गये। उन्हें लगा कि ʹयह आवाज तो मेरे घर के प्रवेशद्वार से अंदर आ रही है।ʹ कौन होंगे ?

दरवाजा खोला तो देखा कि एक लँगोटधारी महापुरुष खड़े हैं। वे आदेश के स्वर में बोलेः "अरे नारायण ! कब तक सोता रहेगा, खड़ा हो जा।" वे उन महापुरुष के नजदीक आकर खड़े हो गये। वे घर से बाहर निकले। नारायण प्रसाद उनके पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर बोलेः "अरे, जेब में क्या रखा है ? लोहे का टुकड़ा जेब में रखा है क्या ?"

देखा कि जेब में तिजोरी की चाबियाँ हैं। उन्होंने चाबियाँ वहीं रास्ते में फेंक दीं। आगे बाबा, और पीछे नारायण प्रसाद। जाते-जाते एकांत में नारायण प्रसाद को बाबाजी ने ज्ञान दिया कि ʹवे परमात्मा विभु-व्याप्त हैं। वे यदि अंतरात्मा रूप में नहीं मिले तो बाहर नहीं मिलते हैं। यह उन्हीं आत्मदेव की लीला है। वे ही आत्मदेव तुम्हारा रूप बनाकर केस जीतकर आये हैं। उन परमेश्वर को पा लो, बाकी सब झंझट है।ʹ

लँगोटधारी बाबा थे नित्यानंद महाराज। एक तो वज्रेश्वरी के मुक्तानंद जी के गुरु नित्यानंद जी हो गये, ये दूसरे थे। इंदौर से करीब 70 किलोमीटर दूर धार में इनका आश्रम है, मैं देखकर आया हूँ।

नित्यानंद जी बड़े बाप जी के नाम से प्रसिद्ध थे। नित्यानंद बाबा नारायण प्रसाद को इतना स्नेह करने लगे कि लोग नारायण प्रसाद को छोटे बाप जी बोलने लगे।

छोटे बापजी मानते थे कि ʹवास्तव में तत्त्वरूप से गुरु का आत्मा नित्य, व्यापक, विभु, चैतन्य है और मैं भी वही हूँ।ʹ बड़े बाप जी भी मानते थे कि ʹनारायण प्रसाद का शरीर और मेरा शरीर भिन्न दिखता है लेकिन चिदानंद आकाश दोनों में एकस्वरूप है।ʹ

एक बार उत्तराखंड से कुछ संत नित्यानंद महाराज के दर्शन-सत्संग के लिए धार शहर में स्थित आश्रम में आये थे। नारायण प्रसाद आश्रम की सारी व्यवस्था सँभालते थे। उन्हें लगा कि बड़े बाप जी सबसे ज्यादा महत्त्व नारायण प्रसाद को देते हैं। विदाई के समय नित्यानंद बाबा ने कहाः "चलो, संत लोग आज विदाई ले रहे हैं तो हम आपके साथ बैठकर फोटो निकलवायेंगे।" आग्रह किया तो सब संत राजी हो गये।

फोटोग्राफर ने फोटो लिये। जब फोटो खींचे गये उसमें नारायण प्रसाद को शामिल नहीं किया। लेकिन जब फोटो को प्रिंट किया तो नारायण प्रसाद का फोटो बाबा के हृदय में दिखायी दे रहा था ! फोटोग्राफर दंग रह गया कि ʹयह कैसे ! किसी के हृदय में किसी का फोटो आ जाये !"

बोलेः "बाबा ! यह क्या है ?"

बड़े बाप जी बोलेः "मैं क्या करूँ ? इसको कितना दूर रखूँ, यह तो मेरे हृदय में समा के बैठ गया है।" तो मन में जिसकी तीव्र भावना होती है, वह हृदय में भी दिखायी देता है। नारायण प्रसाद की तीव्र प्रीति, भावना थी तो फोटो में बाबा जी के हृदय में नारायण प्रसाद आ गये।

हमारे कई साधकों के हृदय में ૐकार मंत्र की, हरि ૐ मंत्र की महत्ता है तो बैंगन काटते हैं तो ૐकार दिखता है, रोटी बनाते हैं तो उस पर ૐकार उभरता है। आपकी भगवान के प्रति जैसी तीव्र भावना होती है वैसा उसका सीधा असर पड़ता है और दिखायी भी देता है।

नित्यानंद बाबा नारायण प्रसाद से बोलते थे कि ʹनारायण भी तत्त्वरूप से आत्मदेव हैंʹ तो उनहे हृदय में आकृतिवाले नारायण प्रसाद दिखायी दिये।

बाबा के जीवन में बहुत सारी आध्यात्मिक चमत्कारिक घटनाएँ घटीं लेकिन बड़े-में-बड़ा चमत्कार यह है कि बाबा इन सब चमत्कारों को ऐहिक मानते थे और सारे चमत्कार जिस सत्ता से होते हैं, उस आत्मा-परमात्मा को ʹमैंʹ रूप में जानते थे।

तो ध्यान-भजन करने से आपका पेशा बिगड़ता नहीं बल्कि आपकी बुद्धि में भगवान की विलक्षण लक्षण वाली शक्ति आती है। आप लोग भी इन महापुरुषों की जीवनलीलाओं से, घटनाओँ से अपने जीवन में यह दृढ़ करो कि-

हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम में प्रगट होहिं मैं जाना।।
(श्रीरामचरित. बा.कां. 184.3)

भगवान व्यापक हैं उनके लिए जिनके हृदय में प्रीति होती है, उनके हृदय में वे प्रकट होते हैं।

Friday 13 November 2015

यह जीवन सात दिन है

जीना मारना सब इन सात दिन में है
सोमवारमंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार, रविवार. इन्ही साठ दिन में जीवन है और आने वाले सात दिन में ही मृत्यु आने वाली है।
क्युकी आठवाँ दिन तो आता ही नहीं
गोवर्धन-धारण की कथा तो सभी को ज्ञात ही है। आनंदकंद, ब्रजचंद, मुरलीधर ने अपनी कनिष्ठिका पर गोवर्धन पर्वत को एक पुष्प के समान उठा लिया और सात दिनों तक उसे धारण कर ब्रजवासियों की रक्षा की और इन्द्र का अभिमान नष्ट किया।

कन्हैया के गिरि-गोवर्धन को उठा लेने पर गोपालों ने विचार किया कि छोटो सो कन्हैया थक जायेगो सो सभी ने अपनी-अपनी लाठी पर्वत के नीचे लगा दी ताकि पर्वत का भार अकेले कन्हैया को उठाने से विशेष श्रम न हो और कन्हैया से बोले कि - "अब, तू नैंक विश्राम कर लै, उँगरिया हटाय लै, हमने लठिया लगाय दई है, अब हम सम्हार लंगे"।
नन्दनन्दन बोले - "ठीक है भैया ! मेरी ऊ उंगरिया में दर्द है रहयो है, तुम सम्हारे हो तो अब कोऊ चिंता की बात नाँय।"
किन्तु यह क्या? मुरलीधर के उंगली तनिक नीचे करते ही पर्वत का भार असहनीय हो गया और भय के कारण गोप पुकार उठे - "अरे लाला कन्हैया ! जल्दी उंगरिया लगा, नाँय तो जै पर्वत अभी हम सबन लैके धँस जायेगो, तेरी उंगरिया की हू बहुत आवश्यकता है, संतुलन के काजे; वैसे तो हमने सम्हार ही लियो है"। 
यह संसार गोवर्धन पर्वत के समान है जिसे मेरे ठाकुर जी अपनी कनिष्ठिका उँगली पर धारण करते है, उन्होंने कृपापूर्वक हमें मान देने के लिये हमसे लाठी लगवा रखी है फ़लस्वरूप हम समझते हैं कि इसे हमने ही उठा रखा है। हमें स्मरण रखना है कि यह हमारा परम सौभाग्य है कि हम सातों दिन [पूरा मानव जन्म] अपने प्राणप्रिय प्रभु को निहारते हुए उनकी परम करूणा का पात्र बनकर कर्मरूपी लाठी लगाकर सुरक्षित रह सकते हैं परन्तु वास्तव में तो सारा भार उन्होंने ही उठा रखा है।
"गो" का अर्थ है ज्ञान और भक्ति। ज्ञान और भक्ति को बढ़ाने वाली लीला ही गोवर्धन-लीला है। इन्द्रियाँ जब ज्ञान और भक्ति की ओर बढ़ने लगती हैं तो वासनाएं बाधक बनकर खड़ी हो जाती है और साम-दाम-दन्ड-भेद के द्वारा बुद्धि को भ्रमित करतीं हैं कि यह मार्ग उचित नहीं क्योंकि श्रीहरि-विमुख न होने से उन्हें यह देह छोड़नी होगी। इन्द्रियों की वासना-वर्षा के समय सदग्रन्थ और संतों का संग, वासना से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है। जीव लकड़ी का आधार लेता है किन्तु प्रभु का आधार लेने से ही मार्ग निष्कंटक होगा। यह संसार-रुपी गोवर्धन प्रभु के सहारे ही है। केन्द्र में श्रीहरि का आधार होने के कारण आनन्द ही आनन्द है। दु:ख में, विपत्ति में एकमात्र प्रभु का ही आश्रय लेना चाहिये जैसे सभी गोप-ग्वाल अन्य देवों का सहारा त्यागकर प्रभु श्रीकृष्ण की शरण हो गये तो उनका सारा भार अकारणकरुणावरुणालय गिरिधारी ने उठा लिया।
"कोई तन दु:खी, कोई मन दु:खी, चिन्ता-चित्त उदास।
थोड़े-थोड़े सब दु:खी, सुखी श्याम के दास"॥
जय जय श्री राधे !

Monday 2 November 2015

आज दरबार से ख़ाली नहीं जाऊँगी ! हे दयालु ! प्रसन्न हूजिये !

हम सब पर प्रभु कृपा करें ! मंगल ही मंगल हो !

हे कृपामय ! हे करूणा के महासागर प्रभु !
आपके चरणों पर सर रख कर प्रणाम करती हूँ !
आप प्रेम से दया से मेरे सिर पर हाथ फेरिये और अपनी सुखदायी नित्य निरंतर भक्ति का दान दीजिये !
भक्ति बिना आप प्रसन्न नहीं होते ! भक्ति से ही भक्तों के वश में हो जाते है !
जीवन की शाम ढलने से पहले ही भक्ति में सराबोर कर दीजिये !
भक्ति जीवन में आते सब्र संतोष व आनन्द की वर्षा हो जाती है !
पाप दोष सब मिट जाते हैं !
धन्य है भक्त ध्रुव व प्रह्लाद जिन पर बचपन में ही आपने महती कृपा कर भक्ति रस में डुबो दिया !
अब हमारे सब पापों को नज़र अँदाज करके हमें अपनी निश्चिल भक्ति व प्रीति का दान दीजिये !
आज दरबार से ख़ाली नहीं जाऊँगी ! हे दयालु ! प्रसन्न हूजिये !