Wednesday 16 December 2015

इस भौतिक तन , और लौकिक धन

शास्त्र व सन्त कहते हैं कि ,
इस भौतिक तन , और लौकिक धन की , सुन्दरता व आकर्षण तो क्षणिक व अस्थायी हैं ,
ये तो हर दिन और हरपल बदलते रहे हैं ,  बदल रहे हैं , और बदलते ही रहेंगे ।
हम मनुष्यों के पास केवल एक मन ही , ऐसी निधि है , जो कि बहुत जल्दी नहीं बदलता , अगर हम विवेक से काम ले कर अपने मन को , एक बार अपने हित के कामों में लगा लें तो , यह अंत तक हमारा हित साधता रहेगा और अगर अविवेक का आश्रय ले लिया तो फिर इसको जल्दी से बदल पाना अगर असम्भव नहीं तो , बहुत ही मुश्किल है और फिर यही मन हमारे लिए नर्क का रास्ता खोल कर तैयार बैठा रहता है ,
इसलिए कहा जाता है कि , हमारे पास एक मन ही ऐसा है जो अंत समय तक करीब - करीब एक समान बना रहता है , 

तन और धन की सुंदरता की तरह जल्दी से बदलता नहीं , 
जिसका मन बुरा व कलुषित है , उसका अंत तक बुरा और कलुषित ही और जिसका निर्मल व सात्विक है ,. उसका अंत तक उसका हितैषी ही ।
इसीलिए तो संत और सारे शास्त्र , हम संसारियों को एक मत से यह कह कर , आगाह करते हैं कि , 

बचपन से ही , मन पर विशेष ध्यान दो , सुन्दर तन और अकूत धन जीव की कोई खास बडी उपलब्धि नहीं , बल्कि जीव की जो सबसे बडी उपलब्धि है , वह है उसका निर्मल मन , क्योंकि धन की प्राप्ति तो जीव को उसके प्रारब्ध से हो जाती है , उसमें व्यक्ति का प्रयास कोई खास काम नहीं करता ,
धन प्राप्ति में जीव अपने स्तर पर स्वतंत्र नहीं है , लेकिन मन के मामले में जीव स्वतंत्र है ,
मन पर प्रारब्ध का कोई जोर नहीं होता , 

इसलिए अगर जीव चाहे तो अपने मन को अपने हिसाब से ढाल सकता है और अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण इसी जन्म में कर सकता है ,
निर्मल मन उस मंदिर के समान होता है, जिसकी कि तलाश भगवान को भी रहती है कि, कोई निर्मल मन वाला महापुरुष मिल जाए तो मैं जाकर उसके हृदयासन पर अपना आसन लगा लूँ  और उसके निर्मल भावों का रसास्वादन करूँ।

( संत तुलसीदास जी लिखा है )

निर्मल मन जन सो मोहि भावा ,  मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।

संत और शास्त्र तो यहां तक कहते हैं कि, संसार में धन - सम्पदा और सुन्दरता से सम्पन्न व्यक्ति मिल जाना जितना अधिक आसान व सुलभ है , निर्मल मन वाले व्यक्ति का मिलना उतना ही दुर्लभ ।
लाखों करोडों में कोई इक्का - दुक्का ही व्यक्ति ऐसा दिखलाई देता है, जिसने कि अपने मन को रागाद्वेष व काम - क्रोध से बचा कर रखा हो और अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर लिया हो जिसको कि, भगवान ने अपने लिए रहने के लिए चुना हो, 

जैसे कि मीरा - सूरदास - नरसी - कबीर और तुलसी का देख कर चुना ,

 मन प्रसन्न हो , स्वस्थ तन , इच्छा होंय समाप्त।
होंगी , तब ही भजन हो , तभी हरि हों प्राप्त।।
क्योंकि तभी हो सहजता , तभी जीव निर्भीक।
भजन में " रोटीराम " ना , भौतिक सुख - दुख ठीक।।

यह मानव जन्म हमको चौरासी लाख यौनियां भोग कर मिला है , 

इसके मिलने का हेतु  भोग नहीं , वल्कि भजन है ,
भोगों के लिए तो पशुयोनि होती है ,

Wednesday 2 December 2015

भाव

भगवान् उस हृदय में रहते हैं जिस हृदय में भाव योग से सफाई की गयी हो।  
एक बार ब्रह्मा जी ने प्रभु से पूछा कि आप कहाँ रहते हो ? 
कोई कहता है कि भगवान् बैकुण्ठ में रहते हैं और कोई कहता है कि प्रभु धाम में रहते हैं। 

भगवान् उसके हृदय में रहते हैं जिस हृदय में भाव योग से उस हृदय की सफाई की गयी हो। अच्छी भावनाओं से हृदय को बुहारा गया हो। निर्मल मन जन सों मोहि पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा।  
अगर तुम भगवान् से मिलना चाहते हो तो तुम कहीं मत जाओ। सिर्फ अपने मन को साफ करके सुंदर भावनाओं से सजा दो। प्रभु अपने आप आ जायेंगे। रूप गोस्वामी जी ने भक्ति के 64 अंग बताये हैं, परन्तु इतने अंगों की साधना कौन कर सकेगा ? धाम निवास करने से, भक्त संग करने से, या नाम निष्ठा से 64 अंग पूरे हो जाते हैं। इन सभी क्रियाओं में भाव का होना आवश्यक है। भाव के बिना कोई भी साधन भक्ति नहीं देगा।  
इस शरीर को भगवान् का मन्दिर समझो। चराचर सब भगवान् का निवास स्थल है। तुलसी दास जी ने कहा था कि "तुलसी या संसार में सबसे मिलिये धाय, ना जाने केहि बेष में नारायण मिल जाँय"। सर्वत्र प्रभु को देखो। प्रभु ही अनेक रूपों में हमारे सामने स्थित हैं। हर प्राणी को पवित्र दृष्टि से देखो। हर प्राणी का सम्मान करो। ये ही भगवान् की सच्ची पूजा है।  
पता नहीं किस रूप में प्रभु के दर्शन हो जाँय ? जिन प्रभु की चितवन में इतना चमत्कार है कि जरा सा देखने मात्र से ही अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना हो जाती है, उनकी शक्ति का कोई क्या अनुमान लगा सकता है ? भक्त दीवाना होता है और होना भी चाहिए। क्योंकि जो अखिल ब्रह्माण्ड नायक है उसे पाना कोई खेल थोड़े ही है। भक्त न कहीं अच्छा देखता है और न कहीं बुरा देखता है। भक्त सबमें एक तत्व देखता है। भक्त अपना ध्यान केवल प्रभु के श्री चरणों में केंद्रित रखता है।  
अपने इष्ट की स्मृति बनी रहे, इससे बड़ा और कोई साधन नहीं है। श्री भगवान् स्मृति के बिना सब साधन व समस्त कर्म व्यर्थ हैं। श्री भगवान् स्मृति की डोर ऐसी अनंत है कि उससे स्वयं श्री भगवान् बंधे चले आते हैं और फिर कभी नहीं जाते।"

Tuesday 1 December 2015

है नाथ मेरी पकड़ डीली है पर आप मुझे थामे रखना आप नहीं छोड़ना

: ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम्||
धर्ममेघ समाधि( भजन पुष्ट) सिद्ध होने पर साधक के लिए गुणों का कोई कर्त्तव्य बचा नहीं रह जाता|
गुणों का कार्य जो भोग अथवा अपवर्ग देना है,वह पूर्ण हो जाता है|
अतः गुणों के प्रभाव स्वरूप जो परिवर्त्तन होते रहना रूप  परिणामक्रम(continuous change & results)है,वह साधक के लिए पूर्णतः समाप्त हो जाता है|
अतः साधक का भविष्य में कोई शरीर के साथ जन्म होना है,-ऐसी संभावनाएं पूर्णतः समाप्त हो जाती हैं|
यही पुनर्जन्म न होने का विज्ञान(विश्लेषण)है|
अतः जन्ममृत्त्यु के चक्र से छूटने के लिए समग्र पूर्ण मनोयोग से भजन(भगवदाराधन)करते रहिये|
जय श्री कृष्ण||
दास दासानुदास विनोद अरोड़ा
है नाथ मेरी पकड़ डीली है पर आप मुझे थामे रखना आप नहीं छोड़ना मैं आपका हूँ केवल आप ही मेरे है बस यही निश्चय मेरा हर पल बना रहे ।

" सो माया बस भयो गोसाईं, बंध्यो कीर मरकट की नाईं "......!!
हर आदमी की यही शिकायत होती है कि वह अब सब कुछ छोड़कर भगवान का भजन करना चाहता है, पर वह करे तो क्या करे.?
यह संसार उसे छोड़ता ही नहीं है।
जब वह यह कहते है तो मुझे मानस की यही पंक्ति,"सो माया बस भयो गोसाईं, बंध्यों कीर मरकट की नाईं" याद आ जाती है।
हम सभी मानवों की यही हालत है।
जब जीव इस धरती पर आता है तो वह आकाश से गिरने वाली पानी की बूंद की तरह पवित्र, निर्मल और स्वच्छ होता है पर जैसे ही यह पवित्र बूंद धरती का स्पर्श करती है, मटमैली हो जाती है।
उसी प्रकार यह जीव भी जैसे ही धरती का स्पर्श करता है, माया आकर उससे लिपट जाती है, "भूमि परत भा ढाबर पानी, जिम जीवहिं माया लिपटानी" और फिर यह माया जीव से पूरे जीवन भर किसी न किसी रूप में लिपटी ही रहती है।
कभी माँ-बाप के रूप में, कभी प्रेमी -प्रेमिका के रूप में, कभी पत्नी और बच्चों के रूप में, कभी सुन्दरता के रूप में, कभी दानी और त्यागी के रूप में, कभी साधू और सन्यासी होने के अहंकार के रूप, यानि यह माया किसी न किसी रूप में जीव से लिपटी ही रहती है।
जीव नित्य मुक्त है पर माया के आवरण के कारण वह अपने को कीर और मरकट की तरह यह मानता है कि संसार उसे पकडे हुए है।
जब कि वास्तिविकता यही है कि संसार उसे नहीं पकड़े, वही संसार को पकड़े हुए है।
शिकारी तोते {कीर} को पकड़ने के लिए एक रस्सी के ऊपर पोपली [पोला बांस] चढ़ा देता है और नीचे तोते का प्रिय खाद्य मिर्च डाल देता है।
तोता जैसे ही मिर्च के खाने के लालच में पोपली के ऊपर बैठता है, पोपली पलट जाती है और तोता सिर के बल नीचे लटक जाता है।
तोता यह समझता है कि पोपली ने उसे पकड़ लिया है, जब कि वास्तविकता यह है कि वह पोपली को पकड़े हुए है।
वह पोपली को छोड़ दे तो वह नित्य मुक्त है पर वह माया के आवरण के कारण पोपली को छोड़ नहीं पाता और यह काल रूपी शिकारी उसे पकड़ कर अपने साथ ले जाता है।
ठीक यही स्थिति मरकट [बंदर] की होती है।
शिकारी उसको पकड़ने के लिए, एक सकरे मुंह का घड़ा [सुराही], जमीन में गाड़ देता है और उस घड़े में बंदर का प्रिय खाद्य [चने] डाल देता है।
बंदर चने के लालच में घड़े में हाथ डालकर, चने अपनी मुट्टी में भर लेता है।
अब मुट्टी सुराही का मुहं सकरा होने के कारण, निकल नहीं पाती तो वह समझता है कि घड़े ने उसे पकड़ लिया है और तभी काल रूपी शिकारी आकर उसे पकड़ लेता है।
यदि बंदर चनों का लालच छोड़ कर मुट्टी खोल दे तो वह जीव की तरह नित्य मुक्त तो है ही।
इसी माया के आवरण के कारण जीव समझता है कि संसार उसे पकडे हुए है, जबकि वास्तविकता यही है कि जीव संसार को पकडे हुए है।
जीव पुरुषार्थ के द्वारा इस माया के पार नहीं जा सकता।
इसके लिये उसे प्रभु की शरणागति स्वीकार करनी पड़ेगी, तभी वह इस माया के आवरण को भेदने में समर्थ हो सकेगा।
भगवान गीता में स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं, "मामेव ये प्रपद्यन्ते, मायामेतां तरन्ति ते" पर हम भगवान को तो मानते है पर भगवान की कही बात पर विश्वास नहीं करते और यही हमारे दुःख का कारण है।
इसके लिए हम ही दोषी हैं, कोई दूसरा नहीं।
श्री राधारंगबिहारी लाल जी प्रिय हों
जय जय श्री राधे

Saturday 28 November 2015

***** राधा प्रेम *****


सूर्यदेव राधा जी के कुलदेव हैं ।
राधा जी रोजाना सूर्य को जल देती हैं ।
लेकिन आज राधा जी भाववेश पश्चिम की तरफ जल दे रही हैं,,,,,,
ललिता जी राधा जी से बोली ~ 

हे स्वामिनी जू आप तो बड़ी भोरी हैं सूर्य तो पूर्व से निकले है 
और आप जल पश्चिम की तरफ दे रही हैं ।
राधा जी नेत्रो में करूणाजल भर कर बोली ~ 

ललिते भोरी मैं ना भोरी तो तू है,,,,,
जाने नाय कि मेरा सूर्य तो पश्चिम से निकले है,,,,,

क्योकि पश्चिम की तरफ नंद बाबा को भवन है,,,,,

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राध राधे राधे

Tuesday 24 November 2015

अपने साधनों के अनुसार अर्चाविग्रह की पूजा करने से चूकना नहीं चाहिए ।


भगवद्गीता गीता में कहा गया है कि यदि कोई भक्त भगवान् को पत्ती या थोड़ा जल भी अर्पित करे तो वे प्रसन्न हो जाते हैं ।
भगवान् द्वारा बताया गया यह सूत्र निर्धन से निर्धन व्यक्ति पर लागू होता है।
किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जिनके पास पर्याप्त साधन हों वह भी इसी विधि को अपनाए और भगवान्  को जल तथा पत्ती अर्पित करके उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करे। यदि उसके  पास पर्याप्त साधन हों तो उसे अच्छे अच्छे अलंकरण,  उत्तम फूल तथा भोज्य सामग्री अर्पित करनी चाहिए और सारे उत्सव मनाने चाहिए ।
  ऐसा नहीं है कि वह अपनी  इन्द्रियतृप्ति के लिए अपना सारा धन व्यय कर दे और भगवान् को प्रसन्न करने के लिए थोड़ा जल तथा पत्ती अर्पित करे ।
कृष्ण को पहले अर्पित किये बिना कोई भी भोज्य पदार्थ नही खाना चाहिए ।
ऋतु के अनुसार कृष्ण को ताजे फल तथा अन्न अर्पित करने से चूकना नहीं चाहिए ।
भोजन बन जाने के बाद, जब तक उसे अर्चाविग्रह को अर्पित न कर दिया जाए तब तक उसे किसी  को नही देना चाहिए ।

Wednesday 18 November 2015

हरि व्यापक सर्वत्र समानाः....

गुजरात में नारायण प्रसाद नाम के एक वकील रहते थे। वकील होने के बावजूद भी उन्हें भगवान की भक्ति अच्छी लगती थी। नदी में स्नान करके गायत्री मंत्र का जप करते, फिर कोर्ट कचहरी का काम करते। कोर्ट-कचहरी में जाकर खड़े हो जाते तो कैसा भी केस हो, निर्दोष व्यक्ति को तो हँसते-हँसते छुड़ा देते थे, उनकी बुद्धि ऐसी विलक्षण थी।

एक बार एक आदमी को किसी ने झूठे आरोप में फँसा दिया था। निचली कोर्ट ने उसको मृत्युदंड की सजा सुना दी। अब वह केस नारायण प्रसाद के पास आया।

ये भाई तो नदी पर स्नान करने गये और स्नान कर वहीं गायत्री मंत्र का जप करने बैठ गये। जप करते-करते ध्यानस्थ हो गये। ध्यान से उठे तो ऐसा लगा कि शाम के पाँच बज गये। ध्यान से उठे तो सोचा कि ʹआज तो महत्त्वपूर्ण केस था। मृत्युदंड मिल हुए अपराधी का आज आखिरी फैसले का दिन था। पैरवी करके आखिरी फैसला करना था। यह क्या हो गया !ʹ

जल्दी-जल्दी घर पहुँचे। देखा तो उनके मुवक्किल के परिवार वाले भी बधाई दे रहे हैं, दूसरे वकील भी बधाई देने आये हैं। उनका अपना सहायक वकील और मुंशी सब धन्यवाद देने आये हैं। बोलने लगेः "नारायण प्रसाद जी ! आपने तो गजब कर दिया ! उस मृत्युदंड वाले को आपने हँसते-खेलते ऐसे छुड़ा दिया कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हम आपको बधाई देते हैं।

नारायण प्रसाद ने गम्भीरता से उनका धन्यवाद स्वीकार कर लिया। उनको तो पता था ʹमैं कोर्ट में गया ही नहीं हूँ।ʹ

संध्या करके जो कुछ जलपान करना था किया, थोड़ा टहलकर फिर शय़नखंड में गये। सोचते रहे कि ʹभगवान ने मेरा रूप कैसे बना लिया होगा ?ʹ इसके विषय में सूक्ष्म चिंतन किया। विचार करते-करते नारायण प्रसाद को हुआ कि ʹमुझे आज केस के लिए कोर्ट में जाना था, मुझे पता था और मुझे पता रहे उसके पहले मेरे अंतर्यामी जानते थे। मन में जो भाव आते हैं, उन सारे भावों को समझने वाले भावग्रही जनार्दनः हैं। जहाँ से भाव उठता है वहाँ तो वे ठाकुरजी बैठे हैं।

ʹथोड़ा ध्यान करके जाऊँगाʹ, यह मेरा संकल्प मेरे अंतर्यामी ने जान लिया। वह मेरा अंतरात्मा ही नाराय़ण प्रसाद वकील बन के, केस जिताकर मुझे यश देता है। यह प्रभु की क्या लीला है ! यह सब क्या व्यवस्था है !ʹ - यह विचार करते-करते सो गये।

थोड़ी नींद ली, इतने में उनके कानों में ʹनारायण..... नारायण.... नारायण.... ʹ की आवाज सुनायी दी और वे अचानक उठकर बैठ गये। उन्हें लगा कि ʹयह आवाज तो मेरे घर के प्रवेशद्वार से अंदर आ रही है।ʹ कौन होंगे ?

दरवाजा खोला तो देखा कि एक लँगोटधारी महापुरुष खड़े हैं। वे आदेश के स्वर में बोलेः "अरे नारायण ! कब तक सोता रहेगा, खड़ा हो जा।" वे उन महापुरुष के नजदीक आकर खड़े हो गये। वे घर से बाहर निकले। नारायण प्रसाद उनके पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर बोलेः "अरे, जेब में क्या रखा है ? लोहे का टुकड़ा जेब में रखा है क्या ?"

देखा कि जेब में तिजोरी की चाबियाँ हैं। उन्होंने चाबियाँ वहीं रास्ते में फेंक दीं। आगे बाबा, और पीछे नारायण प्रसाद। जाते-जाते एकांत में नारायण प्रसाद को बाबाजी ने ज्ञान दिया कि ʹवे परमात्मा विभु-व्याप्त हैं। वे यदि अंतरात्मा रूप में नहीं मिले तो बाहर नहीं मिलते हैं। यह उन्हीं आत्मदेव की लीला है। वे ही आत्मदेव तुम्हारा रूप बनाकर केस जीतकर आये हैं। उन परमेश्वर को पा लो, बाकी सब झंझट है।ʹ

लँगोटधारी बाबा थे नित्यानंद महाराज। एक तो वज्रेश्वरी के मुक्तानंद जी के गुरु नित्यानंद जी हो गये, ये दूसरे थे। इंदौर से करीब 70 किलोमीटर दूर धार में इनका आश्रम है, मैं देखकर आया हूँ।

नित्यानंद जी बड़े बाप जी के नाम से प्रसिद्ध थे। नित्यानंद बाबा नारायण प्रसाद को इतना स्नेह करने लगे कि लोग नारायण प्रसाद को छोटे बाप जी बोलने लगे।

छोटे बापजी मानते थे कि ʹवास्तव में तत्त्वरूप से गुरु का आत्मा नित्य, व्यापक, विभु, चैतन्य है और मैं भी वही हूँ।ʹ बड़े बाप जी भी मानते थे कि ʹनारायण प्रसाद का शरीर और मेरा शरीर भिन्न दिखता है लेकिन चिदानंद आकाश दोनों में एकस्वरूप है।ʹ

एक बार उत्तराखंड से कुछ संत नित्यानंद महाराज के दर्शन-सत्संग के लिए धार शहर में स्थित आश्रम में आये थे। नारायण प्रसाद आश्रम की सारी व्यवस्था सँभालते थे। उन्हें लगा कि बड़े बाप जी सबसे ज्यादा महत्त्व नारायण प्रसाद को देते हैं। विदाई के समय नित्यानंद बाबा ने कहाः "चलो, संत लोग आज विदाई ले रहे हैं तो हम आपके साथ बैठकर फोटो निकलवायेंगे।" आग्रह किया तो सब संत राजी हो गये।

फोटोग्राफर ने फोटो लिये। जब फोटो खींचे गये उसमें नारायण प्रसाद को शामिल नहीं किया। लेकिन जब फोटो को प्रिंट किया तो नारायण प्रसाद का फोटो बाबा के हृदय में दिखायी दे रहा था ! फोटोग्राफर दंग रह गया कि ʹयह कैसे ! किसी के हृदय में किसी का फोटो आ जाये !"

बोलेः "बाबा ! यह क्या है ?"

बड़े बाप जी बोलेः "मैं क्या करूँ ? इसको कितना दूर रखूँ, यह तो मेरे हृदय में समा के बैठ गया है।" तो मन में जिसकी तीव्र भावना होती है, वह हृदय में भी दिखायी देता है। नारायण प्रसाद की तीव्र प्रीति, भावना थी तो फोटो में बाबा जी के हृदय में नारायण प्रसाद आ गये।

हमारे कई साधकों के हृदय में ૐकार मंत्र की, हरि ૐ मंत्र की महत्ता है तो बैंगन काटते हैं तो ૐकार दिखता है, रोटी बनाते हैं तो उस पर ૐकार उभरता है। आपकी भगवान के प्रति जैसी तीव्र भावना होती है वैसा उसका सीधा असर पड़ता है और दिखायी भी देता है।

नित्यानंद बाबा नारायण प्रसाद से बोलते थे कि ʹनारायण भी तत्त्वरूप से आत्मदेव हैंʹ तो उनहे हृदय में आकृतिवाले नारायण प्रसाद दिखायी दिये।

बाबा के जीवन में बहुत सारी आध्यात्मिक चमत्कारिक घटनाएँ घटीं लेकिन बड़े-में-बड़ा चमत्कार यह है कि बाबा इन सब चमत्कारों को ऐहिक मानते थे और सारे चमत्कार जिस सत्ता से होते हैं, उस आत्मा-परमात्मा को ʹमैंʹ रूप में जानते थे।

तो ध्यान-भजन करने से आपका पेशा बिगड़ता नहीं बल्कि आपकी बुद्धि में भगवान की विलक्षण लक्षण वाली शक्ति आती है। आप लोग भी इन महापुरुषों की जीवनलीलाओं से, घटनाओँ से अपने जीवन में यह दृढ़ करो कि-

हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम में प्रगट होहिं मैं जाना।।
(श्रीरामचरित. बा.कां. 184.3)

भगवान व्यापक हैं उनके लिए जिनके हृदय में प्रीति होती है, उनके हृदय में वे प्रकट होते हैं।

Friday 13 November 2015

यह जीवन सात दिन है

जीना मारना सब इन सात दिन में है
सोमवारमंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार, रविवार. इन्ही साठ दिन में जीवन है और आने वाले सात दिन में ही मृत्यु आने वाली है।
क्युकी आठवाँ दिन तो आता ही नहीं
गोवर्धन-धारण की कथा तो सभी को ज्ञात ही है। आनंदकंद, ब्रजचंद, मुरलीधर ने अपनी कनिष्ठिका पर गोवर्धन पर्वत को एक पुष्प के समान उठा लिया और सात दिनों तक उसे धारण कर ब्रजवासियों की रक्षा की और इन्द्र का अभिमान नष्ट किया।

कन्हैया के गिरि-गोवर्धन को उठा लेने पर गोपालों ने विचार किया कि छोटो सो कन्हैया थक जायेगो सो सभी ने अपनी-अपनी लाठी पर्वत के नीचे लगा दी ताकि पर्वत का भार अकेले कन्हैया को उठाने से विशेष श्रम न हो और कन्हैया से बोले कि - "अब, तू नैंक विश्राम कर लै, उँगरिया हटाय लै, हमने लठिया लगाय दई है, अब हम सम्हार लंगे"।
नन्दनन्दन बोले - "ठीक है भैया ! मेरी ऊ उंगरिया में दर्द है रहयो है, तुम सम्हारे हो तो अब कोऊ चिंता की बात नाँय।"
किन्तु यह क्या? मुरलीधर के उंगली तनिक नीचे करते ही पर्वत का भार असहनीय हो गया और भय के कारण गोप पुकार उठे - "अरे लाला कन्हैया ! जल्दी उंगरिया लगा, नाँय तो जै पर्वत अभी हम सबन लैके धँस जायेगो, तेरी उंगरिया की हू बहुत आवश्यकता है, संतुलन के काजे; वैसे तो हमने सम्हार ही लियो है"। 
यह संसार गोवर्धन पर्वत के समान है जिसे मेरे ठाकुर जी अपनी कनिष्ठिका उँगली पर धारण करते है, उन्होंने कृपापूर्वक हमें मान देने के लिये हमसे लाठी लगवा रखी है फ़लस्वरूप हम समझते हैं कि इसे हमने ही उठा रखा है। हमें स्मरण रखना है कि यह हमारा परम सौभाग्य है कि हम सातों दिन [पूरा मानव जन्म] अपने प्राणप्रिय प्रभु को निहारते हुए उनकी परम करूणा का पात्र बनकर कर्मरूपी लाठी लगाकर सुरक्षित रह सकते हैं परन्तु वास्तव में तो सारा भार उन्होंने ही उठा रखा है।
"गो" का अर्थ है ज्ञान और भक्ति। ज्ञान और भक्ति को बढ़ाने वाली लीला ही गोवर्धन-लीला है। इन्द्रियाँ जब ज्ञान और भक्ति की ओर बढ़ने लगती हैं तो वासनाएं बाधक बनकर खड़ी हो जाती है और साम-दाम-दन्ड-भेद के द्वारा बुद्धि को भ्रमित करतीं हैं कि यह मार्ग उचित नहीं क्योंकि श्रीहरि-विमुख न होने से उन्हें यह देह छोड़नी होगी। इन्द्रियों की वासना-वर्षा के समय सदग्रन्थ और संतों का संग, वासना से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है। जीव लकड़ी का आधार लेता है किन्तु प्रभु का आधार लेने से ही मार्ग निष्कंटक होगा। यह संसार-रुपी गोवर्धन प्रभु के सहारे ही है। केन्द्र में श्रीहरि का आधार होने के कारण आनन्द ही आनन्द है। दु:ख में, विपत्ति में एकमात्र प्रभु का ही आश्रय लेना चाहिये जैसे सभी गोप-ग्वाल अन्य देवों का सहारा त्यागकर प्रभु श्रीकृष्ण की शरण हो गये तो उनका सारा भार अकारणकरुणावरुणालय गिरिधारी ने उठा लिया।
"कोई तन दु:खी, कोई मन दु:खी, चिन्ता-चित्त उदास।
थोड़े-थोड़े सब दु:खी, सुखी श्याम के दास"॥
जय जय श्री राधे !

Monday 2 November 2015

आज दरबार से ख़ाली नहीं जाऊँगी ! हे दयालु ! प्रसन्न हूजिये !

हम सब पर प्रभु कृपा करें ! मंगल ही मंगल हो !

हे कृपामय ! हे करूणा के महासागर प्रभु !
आपके चरणों पर सर रख कर प्रणाम करती हूँ !
आप प्रेम से दया से मेरे सिर पर हाथ फेरिये और अपनी सुखदायी नित्य निरंतर भक्ति का दान दीजिये !
भक्ति बिना आप प्रसन्न नहीं होते ! भक्ति से ही भक्तों के वश में हो जाते है !
जीवन की शाम ढलने से पहले ही भक्ति में सराबोर कर दीजिये !
भक्ति जीवन में आते सब्र संतोष व आनन्द की वर्षा हो जाती है !
पाप दोष सब मिट जाते हैं !
धन्य है भक्त ध्रुव व प्रह्लाद जिन पर बचपन में ही आपने महती कृपा कर भक्ति रस में डुबो दिया !
अब हमारे सब पापों को नज़र अँदाज करके हमें अपनी निश्चिल भक्ति व प्रीति का दान दीजिये !
आज दरबार से ख़ाली नहीं जाऊँगी ! हे दयालु ! प्रसन्न हूजिये !

Saturday 31 October 2015

कृष्णम् वंदे जगद्गुरुम्

कृष्ण ही माँ है
               कृष्ण ही पिया है
कृष्ण ही दिया है
                कृष्ण ही मीत है
कृष्ण ही प्रीत है
                कृष्ण ही जीवन है
कृष्ण ही प्रकाश है
                कृष्ण ही जीवनज्योती हैै
कृष्ण ही सांस है
                कृष्ण ही आस है
कृष्ण ही प्यास हैै
                कृष्ण ही ज्ञान है
कृष्ण ही ससांर है
                  कृष्ण ही प्यार है
कृष्ण ही गीत है
                कृष्ण ही संगीत है
कृष्ण ही लहर है
                कृष्ण ही भीतर है
कृष्ण ही बाहर है
                कृष्ण ही बहार है
कृष्ण ही प्राण है
                 कृष्ण ही जान है
कृष्ण ही संबल है
                 कृष्ण ही आलंबन है
कृष्ण ही दर्पण है
                  कृष्ण ही धर्म है
कृष्ण ही कर्म है
                 कृष्ण ही मर्म है
कृष्ण ही नर्म है
                कृष्ण ही चमन है
कृष्ण ही मान है
                कृष्ण ही सम्मान है
कृष्ण ही प्राण है
                 कृष्ण ही जहान है
कृष्ण ही समाधान है
                  कृष्ण ही आराधना है
कृष्ण ही उपासना है
                    कृष्ण ही सगुन है
कृष्ण ही निर्गुण है
                    कृष्ण ही आदि है
कृष्ण ही अन्त हैै
                  कृष्ण ही अनन्त है
कृष्ण ही विलय है
                  कृष्ण ही प्रलय है
कृष्ण ही आधि है
                कृष्ण ही व्याधि है
कृष्ण ही समाधि है
                  कृष्ण ही जप है
कृष्ण ही तप है
              कृष्ण ही ताप है
कृष्ण ही यज्ञः है
                 कृष्ण ही हवन है
कृष्ण ही समिध है
                 कृष्ण ही समिधा है
कृष्ण ही आरती है
                 कृष्ण ही भजन है
कृष्ण ही भोजन है
                  कृष्ण ही साज है
कृष्ण ही वाद्य है
                 कृष्ण ही वन्दना है
कृष्ण ही आलाप है
                  कृष्ण ही प्यारा है
कृष्ण ही न्यारा है
                 कृष्ण ही दुलारा हैै
कृष्ण ही मनन है
                 कृष्ण ही चिंतन है
कृष्ण ही वंदन है
               कृष्ण ही चन्दन है
कृष्ण ही अभिनन्दन है
                कृष्ण ही नंदन है
कृष्ण ही गरिमा है
                कृष्ण ही महिमा है
कृष्ण ही चेतना है
                कृष्ण ही भावना है
कृष्ण ही गहना है
                 कृष्ण ही पाहुना है
कृष्ण ही अमृत है
                 कृष्ण ही खुशबू है
कृष्ण ही मंजिल है
                 कृष्ण ही सकल जहाँ है
कृष्ण समष्टि है
               कृष्ण ही व्यष्टि है
कृष्ण ही सृष्टी है
                कृष्ण  ही दृष्टि है
कृष्ण ही तृप्ति है
               कृष्ण  ही भाव है
कृष्ण ही प्रभाव है
                कृष्ण ही स्वभाव है
कृष्णस्तु भगवान स्वयं
 
 Զเधे Զเधे  Զเधे Զเधे

मन को भगवान मे लगाकर रखना चाहिये-

कबीरा यह जग निर्धना,,धनवंता नही कोई,---
धनवंता तेहुं जानिये,,जाको रामनाम धन होई--
बार बार रोते है वो लोग जो संसार से मोह करते है ओर ईस संसार मे प्रसन्न सिर्फ वो रहता है जो भगवान से मोह ओर प्रेम करता है

संसार मे जिसके पास पैसा नही है वो भी दुखी है ओर जिसके पास पैसा है वो भी दुखी है,-----
बहुत अमीर व्यक्ति तो एसे होते है जिनको नींद के लिए गोलियां खानी पडती है----
लिखने  का भाव ये है की संसार मे सब दुखी है लेकिन भक्त ईस भौतिक जगत मे भी आनंदित रहता है------

कोई तन दुखी तो कोई मन दुखी तो कोई धन बिन रहत उदास----
थोडे थोडे सब दुखी,,,सुखी राम का दास------
ईस संसार मे सब दुखी है क्योकि ये संसार दुखालयं है ओर ये संसार परिवर्तनशील है,,,यहां सुख आयेगा तो दुख भी आयेगा ओर दुख आयेगा तो सुख भी आयेगा ----
सुख दुख का चक्र हमेशा चलता रहता है--- संसारिक व्यक्ति ईन सुख दुख मे विचलित हो जाता है जिसकी वजह से वो 8400000 योनियो मे चक्कर काटता है---
सुख आने पर अकड कर चलता है ओर दुख आने पर घबरा जाता है लेकिन भक्त भक्ति के उत्साह ओर आनंद मे ईस तरह डुबा रहता है की सुख दुख का कोई प्रभाव नही पडता क्योकि भक्ति के आनंद के आगे संसारिक सुख दुख फीके होते है----
भक्त सुख दुख को भगवान का प्रसाद समझकर मन को मजबुत रखकर भक्तिमार्ग मे आगे बढता है------

तीन चीजे होते है----- सुख,,,दुख ओर आनंद------
सुख दुख भौतिक जगत मे मिलते है ओर आनंद भक्ति से यानि आध्यात्मिक जगत से मिलता है-----
सुख दुख तो जीवन मे आते जाते रहते है लेकिन अगर एक बार भक्ति जीवन मे प्रवेश कर जाये तो भक्ति का नशा कभी भी नही उतरता-----
गीता के दुसरे अध्याय मे भगवान ने कहा है की जो व्यक्ति सुख दुख से विचलित नही होता वही आनंद को प्राप्त करने के योग्य होता है----
संसार से मोह करने पर जीवन मे अशांति ,तनाव,,कमजोरी आती है ओर भक्ति करने से यानि भगवान से मोह करने से जीवन मे शांति,,आनंद,संतोष आदि आते है------
सेवा सबकी करनी चाहिये लेकिन मोह केवल भगवान से---
विश्वास भी केवल परमात्मा पर----
संसार के प्रति कर्तव्यो का पालन करते हुए मन को भागवत बनाकर चलने वाला गृहस्थी ही भगवद्प्राप्ति के योग्य होता है--- 
कथा जीवन जीने का सही रास्ता दिखाती है----
जो प्यासे है उन्हे प्रेम का अमृत पिलाती है---
ओर जो तडपते है हरपल उनसे मिलने के लिए--
कथा उनको बांके बिहारी से मिलाती है
भक्त ईसलिए आनंदित रहता है क्योकि भक्त को संसार मे जीना आ गया --- भक्त जीवन के लक्ष्य को हमेशा याद रखता है----
ये जीवन अशांत होने के लिए नही मिला,,,ये जीवन कमजोर बनने के लिए नही मिला----
ये जीवन भगवान को पाने के लिए मिला है ओर अगर मनुष्य संसार मे आकर संसार का सब कुछ प्राप्त कर ले ओर अगर भगवान को प्राप्त ना कर पाये तो संसार को पाकर भी खोना पडेगा----
सिकंदर ने कहा था की जब मै मरुं तो मेरी शवयात्रा के दौरान मेरे दोनो हाथो को बाहर निकाल देना ताकि दुनिया भी देखे की दुनिया को लुटने वाला सिकंदर भी खाली हाथ जा रहा है-----
ईस संसार की कोई भी वस्तु साथ नही जायेगी ----
प्रभु की भक्ति ओर प्रभु का नाम रुपि धन ही साथ जायेगा ईसलिए जितना हो सके उतना ही प्रभु का नाम लेना चाहिये ओर मन भगवान के प्रति शरणागत रखना चाहिये-----
श्वास श्वास पर कृष्ण भज,,वृथा श्वास मत खोए----
ना जाने या श्वांस को ,,फिर आवन होए ना होए--------
जिम्मेदारियो को छोडकर भागना नही है----
गीता ओर भागवत का सुत्र है की संसार के प्रति सभी कर्तव्यो का पालन करते हुए मन को भगवान मे लगाकर रखना चाहिये------

सेवा सबकी लेकिन मोह केवल भगवान से ,--
श्री राधे-- प्रेम से बोलिए श्री बांके बिहारी लाल की जय,-- श्री राधा स्नेह बिहारी लाल की जय

हे हरे ! आपने मुझे क्यों भुला दिया

हे हरे ! आपने मुझे क्यों भुला दिया ? हे नाथ ! आप अपनी महिमा और मेरे पाप, इन दोनोंकी ही जानते हैं, तो भी मुझे क्यों नहीं सँभालते ॥१॥
आप पतितोंको पवित्र करनेवाले, दीनोंके हितकारी और अशरणको शरण देनेवाले हैं, चारों वेद ऐसा कहते हैं । तो क्या मैं नीच, भयभीत या दीन नहीं हूँ ? अथवा क्या वेदोंकी यह घोषणा ही झूठी है ? ॥२।
( पहले तो ) मुझे आपने पक्षी ( जटायु गृध्र ), गणिका ( जीवन्ती ), हाथी और व्याध ( वाल्मीकि ) की पंक्तिमें बैठा लिया । यानी पापी स्वीकार कर लिया अब हे कृपानिधान ! आप कलिकाल आपसे अधिक बलवान होता और आपण आज्ञा न मानता होता, तो हे हरे ! हम आपका भरोसा और गुणगान छोड़कर तथा उसपर क्रोध करने और दोष लगानेका झंझट त्याग कर उसीका भजन करते ॥४॥
( परन्तु ) आप तो मामूली मच्छरको ब्रह्मा और ब्रह्माको मच्छरके समान बना सकते हैं, ऐसा आपका प्रताप है । यह सामर्थ्य होते हुए भी आप मुझे त्याग रहे हैं, तब हे नाथ ! मेरा फीर वश ही क्या है ? ॥५॥
यद्यपि मैं सब प्रकारसे हार चुका हूँ और मुझे नरकमें गिरनेका भी भय नहीं है, परन्तु मुझ तुलसीदासको यही सबसे बड़ा दुःख है कि प्रभुके नामने भी मेरे पापोंको भस्म नहीं किया ॥६॥
काहे ते हरि मोहिं बिसारो ।
जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो ॥१॥
पतित - पुनीत, दीनहित, असरन - सरन कहत श्रुति चारो ।
हौं नहिं अधम, सभीत, दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो ? ॥२॥
खग - गनिका - गज - व्याध - पाँति जहँ तहँ हौंहूँ बैठारो ।
अब केहि लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो ॥३॥
जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो ।
तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो ॥४॥
मसक बिरंचि, बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो ।
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो ॥५॥
नाहिन नरक परत मोकहँ डर, जद्यपि हौं अति हारो ।
यह बड़ि त्रास दासतुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो ॥६॥

Thursday 29 October 2015

अनन्य भक्ति के साधन ....

1 ... प्रार्थना -प्रातः काल आँख खुलने पर
..... कर दर्शन  करो और भगवान की प्रार्थना करो ...
... कराग्रे वसते लक्ष्मी , करमूले सरस्वती ।
करमध्ये तु गोविन्दः , प्रभाते कर दर्शनम् ।।
... परन्तु आजकल प्रभात मे कप दर्शन होने लगा ...
....प्रातः काल उठकर कर दर्शन करो अर्थात् मन मेँ विचार करो कि आज मै इन हाथो से सत्कर्म ही करुँगा ताकि परमात्मा मेरे घर पधारने की कृपा करेँ ...
.... हाथ क्रिया शक्ति का प्रतीक है,,,,
.,,,.... भगवान से प्रार्थना करो कि जिसप्रकार आपने अर्जुन का रथ हाँका था उसी प्रकार आप मेरे जीवन रथ के सारथी बनेँ ..
फिर नवग्रहोँ का ध्यान करेँ ...
"ब्रह्मामुरारिस्त्रिपुरान्तकारीभानु:शशिभूमिसुतोबुधश्च, गुरुश्च शुक्र: शनि राहू केतव: कुर्वन्तु सर्वे मम ।"
तब नासिका के पास हाथ ले जाकर देखे यदि दायाँ स्वर चल रहा हो दायाँ पैर , बायाँ स्वर चल रहा हो तो बायाँ पैर धरती पर रखे , पैर रखने से पूर्व प्रार्थना करेँ .......
"समुद्र वसने देवि, पर्वतस्तनमण्डले, विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे."
माता पिता एवं गुरुजनोँ को प्रणाम करेँ । नित्य क्रिया से (शौचादि )पहले  बोले ......
"उत्तिष्ठन्तु सुरा: सर्वेयक्षगन्धर्व किन्नरा,। पिशाचा गुह्यकाश्चैव मलमूत्र करोम्यहं ।।."
निवृत्त होकर दातुन करते समय प्रार्थना करेँ ......
"हे जिह्वे रस सारज्ञे, सर्वदा मधुरप्रिये, नारायणाख्य पीयूषम् पिव जिह्वे निरन्तरं."।
"आयुर्बलं यशो वर्च: प्रजा पशुवसूनि च, ।
ब्रह्म प्रज्ञाम् च मेघाम् च त्वम् नो देहि वनस्पते. ।।"
2 .सेवा पूजा -  स्नान से पूर्व जल मे गंगादि का आवाहन करने हेतु पढ़े ...
"गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ,।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिँ कुरु ।।"
फिर निम्न मंत्रो को बोलते हुए स्नान करेँ .....
"अतिनीलघनश्यामं नालिनायतलोचनम्, ।
स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम्. ।।
स्नानादि से निवृत्त होकर एकान्त मे भगवान की सेवा पूजा करने के लिए मानसिक शुद्धि के लिए  निम्न मन्त्रोँ द्वारा अपने ऊपर छल छिड़के .,..... ..
"ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा, य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतर: शुचिः ।".
निम्न मंत्रो को पढ़ते हुए शिखा बन्धन करेँ .......
"चिद्रूपिणि ! महामाये ! दिव्यतेज:समन्विते, ।
तिष्ठ देवि ! शिखामध्ये तेजो वृद्धिम् कुरुष्व में. ।।
चन्दन लगायेँ
"चन्दनस्य महत्पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ।
आपदां हरते नित्यं लक्ष्मी तिष्ठति सर्वदा ।।"
3 .स्तुति - भगवान की स्तुति करेँ .,.,,,
" शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं , विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णँ शुभाङ्गं ।
लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिर्भिध्यानगम्यं , वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।" 
हे नाथ आपने जब अजामिल जैसे पापी का उद्धार कर दिया तो फिर आप मेरी ओर क्यो नहीँ देखते ?
4 ..कीर्तन - स्तुति के बाद एकान्त मेँ बैठकर प्रभु के नाम का कीर्तन करो ....
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे .... हे नाथ नारायण वासुदेव ...
.,......अपना कामकाज करते समय भी प्रभु का स्मरण करते रहो ,,,
5. कथा श्रवण - प्रभु के प्यारे संतो का समागम करो , उनके श्रीमुख से कथा श्रवण करो , हो सके तो रोज कथा सुनो .
यदि नही सुन सकते समयाभाव मेँ , तो रामायण , भागवत की कथा का वाचन करो ।
प्रेम पूर्वक उसका पाठ करो ।
6 . स्मरण - समस्त कर्मो का समर्पण - रात को सोने से पहले किये हुए कर्मो का विचार करो कि, क्या प्रभु को पसन्द आएँ ऐसे कर्म मेरे हाथ से आज हुए है ।
यदि अन्दर से नकारात्मक उत्तर मिले , तो मान लेना कि वह दिन जीते हुए नही मरते हुए निकल गया । अतः क्षमा प्रार्थना करेँ.,,
"अपराध सहस्राणि क्रियन्ते अर्हनिशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर ।।
.,,.... यदि कोई पाप हो जाय तो प्रायश्चि करो , और किए हुए सभी कर्म को परमात्मा को अर्पित करो ... 
" अनेन कर्मणा श्रीलक्ष्मीनारायण प्रीयतां न मम् ।।

नवधा भक्ति में रखीं , " तुलसी " आठ सशर्त।

नवधा भक्ति में रखीं , " तुलसी " आठ सशर्त।
केवल पहली में नहीं , रक्खी कोई शर्त।।
इसीलिए भक्ति यही , है सबसे आसान।
ऊपर से यह दिव्यता, कि मिला सके भगवान।।
क्यों ? फिर हम उन आठ में , ज्यादा रुचि दिखायं।
उतनी ही वे बहुत है , जितनी हम कर पायं।।
पहली से ही सध रहे , जब अपने सब काम।
तो क्यों ? शर्तों में बंधें , बोलो " रोटीराम "।।

( तुलसीदास जी ने लिखा है कि - - - - )

 बिन सत्संग विवेक न होई , राम कृपा बिन सुलभ न सोई ।।

( शर्तों का विवरण )

 प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ,  

शर्त ( कोई नहीं )
दूसर रति मम कथा प्रसंगा , 

शर्त - कथा सुनें , मगर ( रति ) के साथ,
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति ( अमान ), 

शर्त - गुरु चरणों की सेवा, मगर( अमानी) होकर,
चौथि भगति मम गुन गन ,  करइ ( कपट ) तजि गान ।
शर्त - ( कपट ) से रहित होकर
मंत्र जाप मम ( दृढ विस्वासा ) , पंचम भजन सो वेद प्रकाशा,
शर्त - ( दृढ विस्वास होना चाहिए ) ,
छठ दम सील ( विरति ) बहु करमा , निरत निरंतर सज्जन धरमा,
शर्त - ( विरक्ति ) लेकर निरन्तर( धर्म का पालन ) ,
सातवँ सम ( मोहि मय जग देखा ) , मोते अधिक संत करि लेखा,
शर्त - ( चराचर सृष्टि में मेरा दर्शन हो )
आठवँ जथा लाभ संतोषा , सपनेहुँ नहीं देखइ परदोषा ,
शर्त - ( सन्तोषी हो , और दूसरों में दोष न देखे ),
नवम सरल सब सन छल हीना , मम भरोस हियँ हरष न दीना ,

 नव महुँ एकउ जिन्ह के होई ,  नारि पुरुष सचराचर कोई ,

Wednesday 28 October 2015

कृष्ण सूर्यप्रकाश के तुल्य है



कृष्ण सूर्यप्रकाश के तुल्य है और जहाँ भी कृष्ण रहते है वहाँ अंधकार रुपी माया नहीँ रह सकती । जब कृष्ण को वसुदेव ले जा रहे थे , तब रात्रि का अंधकार दूर हो गया । कारागार के बंधन स्वयमेव खुल गये ।
जब वसुदेव ने कृष्ण को मस्तक पर पधराया तो सारे बंधन टूट गये ।
किन्तु जब गोकुल से कन्या यानी माया को ले आये तो पुनः बन्धनयुक्त हो गये ..
अतः माया रुपी बंधन से बचने हेतु भगवान श्रीकृष्ण के चरणो को अपने मस्तक पर धारण करना चाहिए
यदि अपना जीवन साथक बनाना चाहते हो तो चीज कभी मत छोड़ो = 1. श्रीराधाजी के चरण ! 2. श्रीबहारजी की शरण !
घरकी शोभा भगवान् से हैं l आपके घरमें जो सबसे अच्छी जगह हो, वहाँ भगवान् को विराजो l आजकल लोग साधारण-सी जगहमें भगवान् को बैठा देते हैं l
भगवान् को मालिक मानो-मेरे घरके मालिक भगवान् हैं l भगवान् ने यह सबकुछ दिया है l जो घरमें सेवक बनकर रहता है, उसका मन नहीँ बिगड़ता l
जिस समय तुम्हें भगवान् की याद आये तो तुम जानो कि भगवान् ने हमारे ऊपर कृपा करके हमारे सिर पर हाथ रखा है । फिर भी यदि तुम उस नाम को छोड़ दोगे तो भगवान् का हाथ अपने ऊपर से हटाना यानि उतारना होगा ।

चीर हरण लीला >>

कुमारिकाओ के मन मेँ ऐसी भावना थी कि वे नारी हैँ । ऐसा भाव अहंकार का द्योतक है । उनके इसी अहंभाव को दूर करने हेतु श्रीकृष्ण ने चीर हरण लीला की । इस लीला द्वारा अहंकार का पर्दा हटाकर प्रभू को सर्वस्व अर्पण करने का सन्देश श्रीकृष्ण ने दिया ।
भगवान कहते है - तुम "अपनापन" स्वत्व भुलाकर मेरे पास आऔ । संसार शून्य और सांसारिक संस्कार शून्य होकर , निरावृत्त होकर मेरे पास आओ । द्वैत का आवरण दूर करने पर भी भगवान मिलेँगे ।
" सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज"
गीता मे भी अर्जुन से कहा है। यदि श्रीमदभागवत को गीता के सिद्धान्तो की व्याख्या कहा जाय तो अतिशयोक्ति नही होगा ।
शरीर को वस्त्र छिपाता है और आत्मा को वासना । भगवान हमारे पास ही है किन्तु वासना के कारण देख नहीँ पाते ।
कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूढ़े वन माहि ।
ऐसे घट घट राम दुनिया देखे नाहि ।।
तथा - सियाराम मय सब जग जानी ।।
एवं - सो तुम जानहुँ अन्तरयामी ।।
आत्मा और परमात्मा के बीच वासना का पर्दा है सो हम भगवान का अनुभव नहीँ कर पाते । जैसे ही यह पर्दा हटेगा प्रभू का दर्शन होगा ।
आत्मा अंदर है और ऊपर है अज्ञान और वासना का पर्दा ।
अज्ञान और वासना के इस आवरण को चीर कर भगवान से मिलना है । सिद्ध गुरु की कृपा , परमात्मा की कृपा से बुद्धिगत वासना दूर होती है। बुद्धि मेँ स्थित काम , कृष्ण मिलन मे बाधक है ।
अज्ञान - वासना - वृत्तियोँ के आवरण का नष्ट होना ही चीर हरण लीला है और आवरण नाश के पश्चात जीवात्मा का प्रभू से मिलन है रासलीला ।
कामवासना नष्ट होने पर ईश्वर के साथ अद्वैत हो जाता है ।
भगवान लौकिक वस्त्रो की नहीँ बल्कि बुद्धिगत अज्ञान , कामवासना की चोरी करते है। श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैँ , वे जल मे भी हैँ । वे तो गोपियो से मिले हुए ही थे , किन्तु गोपियाँ अज्ञान और वासना से आवृत्त होने के कारण श्रीकृष्ण का अनुभव नही कर पाती थीँ ।सो उस बुद्धिगत अज्ञान और वासनारुपी वस्त्रोँ को भगवान उठा ले गये । वैसा प्रभू तब करते है जब जीव उनका हो जाता है ।
भगवान कहते है -
न मय्यावशितधियां कामः कामाय कल्पते ।
भर्जिता क्वथिता धान्यः प्रायो बीजाय नेष्यते ।।
जिसने अपनी बुद्धि मुझमे स्थापित कर लिया है , उनके भोगसंकल्प , सांसारिक विषय भोग के लिए नहीँ होते ।बल्कि वे संकल्प मोक्षदायी होते है । जैसे भुने हुए धान्य का बीजतत्व नष्ट हो जाता है और कभी अंकुरित नहीँ हो पाता । उसी प्रकार जिसकी बुद्धि मे से काम वासना का अंकुर उजड़ गया है , वह फिर से अंकुरित नही हो पायेगा ।

Saturday 24 October 2015

मानव काया ही तुंगभद्रा है ।

 भद्रा का अर्थ है कल्याण करने वाली , और तुंग का अर्थ है अधिक । अत्यधिक कल्याण करने वाली नदी ही तुंगभद्रा नदी है और वही मानव शरीर है । अपनी आत्मा को स्वयं देव बनाये वही आत्मदेव है । आत्मदेव ही जीवात्मा है । हम सब आत्मदेव है । नर ही नारायण बनता है । मानव देह मे रहा हुआ जीव देव बन सकता है , और दूसरोँ को भी देव बना सकता है ।
पशु अपने शरीर से अपना कल्याण नहीँ कर सकते । किन्तु मनुष्य बुद्धिमान प्राणी होने के कारण अपने शरीर से अपना तथा दूसरो का कल्याण कर सकता है ।
गुस्सा एवं कुतर्क करने वाली बुद्धि ही धुंधुली है । द्विधा बुद्धि , द्विधा बृत्ति ही धुंधुली है । यह द्विधा बुद्धि जब तक होती है तब तक आत्मशक्ति जाग्रत नहीँ होती ।
बुद्धि के साथ आत्मा का विवाह सम्बन्ध तो हुआ किन्तु जब तक उसे कोई महात्मा न मिले , सत्संग न हो तब तक विवेक रुपी पुत्र का जन्म नही होता है । विवेक ही आत्मा का पुत्र है । " बिनु सत्संग विवेक न होई " जिसके घर मे विवेक रुपी पुत्र का जन्म नही होता वह संसार रुपी नदी मेँ डूब जाता है । स्वयं को देव बनाने और दूसरोँ को देव बनाने की सामर्थ्य आत्मा मेँ है किन्तु आत्मशक्ति जाग्रत तभी होती है जब सत्संग होता है । हनुमान जी समर्थ थे किन्तु जब जामवन्त ने उनके स्वरुप का ज्ञान कराया तभी उन्हे अपने स्वरुप का आत्मशक्ति का ज्ञान हुआ ।" का चुपि साधि रहा हनुमाना " ।
सत्संग से आत्मशक्ति जाग्रत होती है । सन्त महात्मा द्वारा दिया गया विवेक रुपी फल बुद्धि को पसन्द नही है ।
धुँधली (बुद्धि ) छोटी बहन है। मन बुद्धि की सलाह लेता है तो दुःखी होता है । मन कई बार आत्मा को धोखा देता है ।
आत्मदेव की आत्मा बड़ी भोली है उसे मन बुद्धि का छल समझ मे नही आता । अतः फल गाय को खिलाया । गो का अर्थ गाय , इन्द्रिय , भक्ति आदि है ।
धुंधुकारी कौन है - हर समय द्रव्य सुख , और काम सुख का चिन्तन करे , धर्म को नही बल्कि काम सुख एवं द्रव्य सुख ही प्रधान है ऐसा माने वही धुँधुकारी है । बड़ा होने पर धुँधुकारी पाँच वेश्याएँ लाया अर्थात् शब्द , स्पर्श , रुप , रस और गन्ध ये पाँच विषय ही पाँच बेश्याएँ है जो धुँधुकारी अर्थात् जीव को बाँधती है ।
धुँधुकारी के लिए कहा गया है - शव हस्ते भोजनम् अर्थात् के हाथ से भोजन करता था । जो हाथ परोपकार नही करते , श्रीकृष्ण की सेवा नही करते , वे हाथ शव के ही हाथ हैँ । धुँधुकारी स्नानादि क्रिया से हीन था । धुँधुकारी कामी था अतः स्नान तो करता ही होगा किन्तु स्नान के बाद सन्ध्या सेवा न करे , सत्कर्म न करे तो वह स्नान ही व्यर्थ है वह पशु स्नान है अतः कहा गया वह स्नान ही नही करता था ।
तीन प्रकार के स्नान - उषाकाल मेँ 4 बजे से 5 बजे तक ऋषि स्नान । 5 बजे से 6 बजे तक मनुष्य स्नान । 6 बजे के बाद किया जाने वाला राक्षसी स्नान ।
सूर्य बुद्धि के स्वामी है उनकी सन्ध्या करने से बुद्धि तेज होती है । सम्यक ध्यान ही संध्या है ।
स्वान्तःसुखाय
श्रीहरिशरणम्

Wednesday 21 October 2015

भक्त प्रभु से सिर्फ यही चाहता है

भक्त प्रभु से सिर्फ यही चाहता है की प्रभु तेरी याद जीवन मे हमेशा बनी रहे--
संसार के सुखो की दूनिया चाहे लाख बार उजड जाये लेकिन प्रभु तुम अपने चरणो से जुदा मत करना-
भक्त कहते है की हमे ना ही संसारिक भोग चाहिये ओर ना ही संसारिक उपलब्धियां---
हमे सिर्फ एसा बना दीजिये की हम हर क्षण आपका चिंतन करते रहें ओर हमारे अंदर आपके दर्शन की लगन लगे ओर हम आपके विरह मे आंसु बहायें एसा हमे भाव दीजिये--
हमे दुख दे दीजिये क्योकि मनुष्य सुखो से आसक्ति करके प्रभु को भुल जाता है ईसलिए प्रभु हमे या तो दुख दे दीजिये ओर या फिर एसा भाव प्रदान कर दीजिये की सुख दुख मे हम आपको हमेशा याद करते रहें--
सच्चा भक्त तो वही होता है जो हर परिस्थिति मे प्रभु को याद रखता है-
भक्ति के आनंद मे भक्त ईतना उत्साहित रहता है की उसे पता ही नही चलता की कब सुख आया ओर कब दुख आया---
जिस तरह मर्सडिज की गाडी मे बैठकर सडक के गड्डे महसुस नही होते उसी प्रकार जो भक्ति की गाडी मे बैठ जायेगा उसे सुख दुख विचलित नही कर सकते--
प्रेमी भक्तजनो,,,एसा भाव जरुर जीवन मे आयेगा जब कथामृत जीवन मे उतरेगा--
कथा को जो पियेगा वही भगवान को प्राप्त करने के योग्य बनेगा--
अब हम कुंति प्रसंग की तरफ बढ रहे है-- कुंति ने बहुत प्यारी स्तुति गाई है--जब कृष्ण द्वारिका जा रहे थे तो कुंति ने रथ पकड लिया---
कृष्ण का नियम था की वे प्रतिदिन अपनी बुआ को प्रणाम करते थे-- ओर जब आज कृष्ण अपनी बुआ को प्रणाम करने के लिए रथ से नीचे उतरे तो आज कुंति ने प्रणाम किया--
कृष्ण बोले की अरी बुआ ये आप क्या कर रही हो?? मै आपका भतीजा हूं-
कुंति बोली की शरीर का रिश्ता तो बाद मे है लेकिन उससे पहले तेरा ओर मेरा जीव ओर परमात्मा का रिश्ता है--
हम सब जीव है ओर तु परमपिता परमात्मा---
कुंति ने बहूत प्यारी स्तुति गाई है--
कुंति ने कहा की--
नमस्ये पुरुषं त्वामीद्यश्वरं प्रकृते: परम्--अलक्ष्यं सर्वभुतानामन्तर्बहिरवदगथितम्--
ईस श्लोक मे कुंति ने कहा की पुरुषं त्वामीद्यश्वरं अर्थात् हे कृष्ण तुम आदि पुरुष हो --ओर प्रकृते परम् अर्थात् भौतिक गुणो से परे हो--
भगवान के अंदर सतोगुण रजोगुण तमोगुण नही होते--
भगवान गुणातीत होते है--
सर्वभुतानामन्तर्बहिवस्थितम् अर्थात् सब प्राणियो के अंदर ओर बाहर स्थित हो एसे कृष्ण आदि पुरुष को मै प्रणाम करती हूं---
कुंति ने कहा की प्रभु आप अपनी माया के पर्दे से ढके रहते हो--
जो मनुष्य उस माया के पर्दे को हटा देगा तो साक्षात् प्रभु का दर्शन पाता है ओर जो माया का दास बनता है वो कभी भी भगवद्प्राप्ति नही कर पाता-
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च--
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम:--
मै उन भगवान को नमस्कार करती हूं जो वसुदेव के पुत्र ,देवकी के लाडले,नन्द के लाल ओर वृंदावन के अन्य ग्वालो ओर गौवो के प्राण बनकर आये है-- उसके बाद कुंति ने भगवान को कृपाएं याद दिलाई ओर कहा की हे कृष्ण तुमने उतनी कृपा तो अपनी मां देवकी पर भी नही की जितनी कृपा तुमने मुझपर की है--
देवकी के छह पुत्रो को कंस ने मार दिया ओर मेरे पुत्रो को तो आपने हर मुसिबत से बचाया है प्यारे----
जब - जब हमपर संकंट आया तब तब तुमने हमारी रक्षा की ओर जब अब हमे सुख प्राप्त हुआ तो तु हमे छोडकर जा रहा है--
गोविंद तुम एसा करो करो की मुझे दुख दे दो क्योकि दुख जीवन मे रहेगा तो तेरी याद ओर तु हमेशा हमारे पास रहेगा ईसलिए मुझे दुख दे दो गोविंद---
एसे सुख पर सिला पडे जो गोविंद नाम भुलाए---
बलिहारी उस दुख की जो गोविंद नाम रटाए--
कितनी प्यारी स्तुति गाई है कुंति माता ने--
प्रेमी भक्तो,, भगवान के प्रेमियो का धन तो सिर्फ भगवान का नाम ओर भगवान की कथाएं होती है ओर संसार के सुखो मे उनका मोह नही होता --
कुंति भगवान से दुख मांग रही है क्योकि कुंति भगवान से बहूत प्रेम करती है ओर प्रेमी भक्त हमेशा चाहता है की भगवान की याद हर क्षण जीवन मे बनी रहे---
भक्त माया से मोह नही रखते --
माया से मोह विनाश की तरफ लेकर जाता है-- -हे कृष्ण जो आपकी लीलाओ का निरन्तर श्रवण,कीर्तन ओर स्मरण करते है वे आपके चरणकमलो का दर्शन पाते है-- हम भी भगवान से प्रार्थना करें की प्रभु हमारे जीवन मे चाहे कैसा भी समय हो लेकिन आपकी याद हमेशा जीवन मे बनी रहे--
★कृपा तुम्हारी सबपर बनी रहे--
तेरे नाम की लहर दिल मे चली रहे---
भुलें ना तुझे एसी कृपा करना--
तेरे नाम की मस्ती जीवन मे चढी रहें-- ★- ईस प्रकार कुंति स्तुति सुनकर भगवान प्रसन्न हुए ओर कुंति को आशीर्वाद दिया की बुआ जीवन की हर परिस्थिति मे तुझे मेरा स्मरण हमेशा बना रहेगा---
उसके बाद भगवान एक दिन ओर हस्तिनापुर रुके---
कल भीष्म प्रसंग पर चर्चा करेंगे--
--श्री राधे, श्री हरिदास-

वेष्ण

एक गाँव में किसी देवी के बहुत बड़े उपासक रहते। उनके पास ऐसी सिद्धि थी की जब वो अपने आराध्य देवी को याद करे तब वे देवी साक्षात् प्रकट होते।
एक बार चाचा हरिवंशजी और उनके संग में आये हुए वैष्णव कही जा रहे थे। रात्रि का समय हुआ, सभी वैष्णव ने रात्रि मुकाम करने का विचार किया।
रात्रि को चाचा हरिवंशजी और संग में आये हुए वैष्णव उस उपासक के घर के आँगन में विश्राम हेतु सो गये।
उस उपासक ने नित्य की तरह रात्रि में मालजी लेकर जप प्रारम्भ किया। उसे सिद्धि प्राप्त थी की जब वो जप प्रारम्भ करता तब उसकी आराध्य देवी प्रकट हो जाती।
उपासक ने पूरी रात्रि जप किया लेकिन उसकी आराध्य देवी प्रकट नही हुई। उपासक का मन आकुल व्याकुल हो गया और विचार करने लगा की आज मेरी साधना में कोई भूल हुई होगी? मुझसे कोई अपराध हुआ होगा? आज पूरी रात्रि जप किये फिर भी देवी क्यों प्रकट नही हुए?
सुबह होते ही उपासक ने उनकी आराध्य देवी का नाम लिया। नाम लेते ही उसकी आराध्य देवी सामने से चलते हुए उपासक के घर आये। उपासक ने देवी से पूछा की मेने पूरी रात जप किये फिर भी आप नही पधारे और सुबह नाम लेते ही आप पधारे। आप रात्रि को क्यों नही पधारे?
तब उस उपासक की आराध्य देवी ने कहा की- मैं रात्रि को आई तो थी लेकिन तुम्हारे घर के अन्दर नही आ सकी।
उस देवी ने कहा की- जब में तुम्हारे घर आँगन में आई तब मेने देखा की यहा तो वैष्णव विश्राम कर रहे है। वैष्णव को देखकर मुझे लगा की मैं तो प्रभु की माया हूँ लेकिन ये तो वैष्णव है जिनके रोम रोम में प्रभु बिराजते है, जिनके पीछे पीछे मेरे प्रभु दोड़ते है।
जब ऐसे वैष्णव विश्राम करते हो तब उन वेष्णवो को उलाँघ कर मैं तुम्हारे घर में केसे आती?
उपासक ने देवी से पूछा- “फिर आपने पूरी रात्रि क्या किया?”
तब देवी ने कहा- जिन वेष्णवो की टेहल के लिए देवता भी तरसते है ऐसे वेष्णवो की सेवा मुझे सुलभ हुई है। कल रात्रि को गर्मी बहुत थी, मैं पूरी रात खड़ी खड़ी इन वेष्णवो के सुख के लिए पंखे की सेवा कर रही थी।
उपासक ने देवी से आश्चर्य होकर पूछा की- ” ये वैष्णव आप से बड़े है क्या जो आप इनको पंखे की सेवा दे रहे थे?
तब देवी ने उपासक से कहा की- जिनके रोम रोम में प्रभु हो,जिनके अधीन श्री प्रभु हो गये हो ऐसे वैष्णव से मैं बड़ी हो ही नही सकती।
उपासक ने देवी से पूछा- वे सारे वैष्णव कहा है?
तब देवी ने कहा की- अभी वे ज्यादा दूर नही गये, तुम दोड़ते दोड़ते जाओ वे तुम्हे गाँव के बहार मिल जायेंगे।
उपासक दोड़ते दोड़ते चाचा हरिवंशजी के पास पंहुचा और विनती करी- “मुझे वैष्णव होना है कृपा कर मुझे शरण में लीजिये।
चाचा हरिवंशजी ने कहा की तुम्हे शरण तो हमारे श्री गुरु श्री गुंसाईजी लेंगे। उस उपासक की आतुरता देख चाचा हरिवंशजी ने उसे श्री गुंसाईजी का आशीर्वाद उपरणा पधराया।
श्री गुंसाईजी का आशीर्वाद उपरणा लेकर उपासक अपने घर आया और उस उपरने को एक खूंटे पर पधरा दिया।
उस दिन उपासक के यहा उनसे मिलने हेतु खूब मेहमान आये हुए थे। जब उपासक जप करने बेठा तब हवा के झोंके के साथ खूंटे पर पधराया हुआ उपरणा उपासक के गले में आ गया।
उपासक के गले पर उपरणा आते ही उसे घर में आये हुए मेहमान पशु की तरह दिखने लगे। उसे खूब आश्चर्य हुआ। जब उसने उपरणा निकाला तो उसे सभी मनुष्य की तरह दिखने लगे।
उपासक जब उपरणा ओड़कर गाँव में निकला तो उसे पुरे गाँव में पशु ही दिखे कोई मनुष्य दिखे ही नही।
जब उपासक गाँव में थोड़ी दुरी पर गया तो उसे 2 मनुष्य दिखे। उपासक ने उन 2 मनुष्य से पूछा आप कोन हो?
तब उन मनुष्य ने कहा की हम वैष्णव है। नित्य श्री प्रभु की सेवा सत्संग और स्मरण करते है।
तब उस उपासक को ख्याल आया की ये प्रसादी उपरणा गले में आते ही मेरी अन्तर्दृष्टि खुल गई। जो जीव खाना पीना ही अपना जीवन मानते है ऐसे जीव उसे पशु जेसे दिखने लगे और जो जीव सेवा सत्संग स्मरण करते वे मनुष्य जेसे लगे। श्री गुंसाईजी के ऐसे जीवों को कोटी कोटि वंदन।
।।।   श्री गुंसाईजी परम दयाल की जय   ।।।

Sunday 18 October 2015

भगवान् श्री कृष्ण का प्रेम



" भगवान् श्री कृष्ण का प्रेम पा कर मनुष्य सारी बाह्य वस्तुओं को भूल जाता है। जगत का ख्याल उसे नहीं रहता,यहाँ तक कि सब से प्रिय अपने शरीर को भी भूल जाता है। जब ऐसी अवस्था आवे तब समझना चाहिए कि प्रेम प्राप्त हुआ ।"
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क्या आपको 'कृष्ण' का अर्थ मालूम है? वह जो प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु को अपनी और आकर्षित करता है, कृष्ण है| ऐसा आकर्षण जो रोका ही न जा सके! पूरा भागवत यह बताता है कि कृष्ण कितने मंत्रमुग्ध कर देने वाले थे| जब वे रथ में बैठ कर गलियों से गुजरते थे तो लोग मूर्ति की तरह स्तब्ध हो कर उन्हें निहारते रह जाते थे... उनके निकल जाने के बाद भी वे बस वहां खड़े रह जाते थे... गोपियाँ कहती 'जाते जाते वे मेरी नज़रे ही ले गए...'| यानी, ऐसे स्थिति, जब दर्शक और दृश्य एक हो जाए..|
ऐसे बहुत से वृत्तांत हैं... एक गोपी, जो श्रृंगार कर रही थी; कृष्ण के आने की खबर सुनकर, एक ही आंख में प्रसाधन लगे हुए उन्हें देखने दौड़ पड़ी.. दिव्यता अत्यंत आकर्षक है.. (ताकि) हमारा मन तुच्छ बन्धनों से ऊपर उठ सके.. इसीलिए इसे 'मोहन' कहा गया है; मोहन ह्रदय को आकर्षित करता है, मोहित करता है और प्रीति से भर देता है...|