Saturday 31 October 2015

कृष्णम् वंदे जगद्गुरुम्

कृष्ण ही माँ है
               कृष्ण ही पिया है
कृष्ण ही दिया है
                कृष्ण ही मीत है
कृष्ण ही प्रीत है
                कृष्ण ही जीवन है
कृष्ण ही प्रकाश है
                कृष्ण ही जीवनज्योती हैै
कृष्ण ही सांस है
                कृष्ण ही आस है
कृष्ण ही प्यास हैै
                कृष्ण ही ज्ञान है
कृष्ण ही ससांर है
                  कृष्ण ही प्यार है
कृष्ण ही गीत है
                कृष्ण ही संगीत है
कृष्ण ही लहर है
                कृष्ण ही भीतर है
कृष्ण ही बाहर है
                कृष्ण ही बहार है
कृष्ण ही प्राण है
                 कृष्ण ही जान है
कृष्ण ही संबल है
                 कृष्ण ही आलंबन है
कृष्ण ही दर्पण है
                  कृष्ण ही धर्म है
कृष्ण ही कर्म है
                 कृष्ण ही मर्म है
कृष्ण ही नर्म है
                कृष्ण ही चमन है
कृष्ण ही मान है
                कृष्ण ही सम्मान है
कृष्ण ही प्राण है
                 कृष्ण ही जहान है
कृष्ण ही समाधान है
                  कृष्ण ही आराधना है
कृष्ण ही उपासना है
                    कृष्ण ही सगुन है
कृष्ण ही निर्गुण है
                    कृष्ण ही आदि है
कृष्ण ही अन्त हैै
                  कृष्ण ही अनन्त है
कृष्ण ही विलय है
                  कृष्ण ही प्रलय है
कृष्ण ही आधि है
                कृष्ण ही व्याधि है
कृष्ण ही समाधि है
                  कृष्ण ही जप है
कृष्ण ही तप है
              कृष्ण ही ताप है
कृष्ण ही यज्ञः है
                 कृष्ण ही हवन है
कृष्ण ही समिध है
                 कृष्ण ही समिधा है
कृष्ण ही आरती है
                 कृष्ण ही भजन है
कृष्ण ही भोजन है
                  कृष्ण ही साज है
कृष्ण ही वाद्य है
                 कृष्ण ही वन्दना है
कृष्ण ही आलाप है
                  कृष्ण ही प्यारा है
कृष्ण ही न्यारा है
                 कृष्ण ही दुलारा हैै
कृष्ण ही मनन है
                 कृष्ण ही चिंतन है
कृष्ण ही वंदन है
               कृष्ण ही चन्दन है
कृष्ण ही अभिनन्दन है
                कृष्ण ही नंदन है
कृष्ण ही गरिमा है
                कृष्ण ही महिमा है
कृष्ण ही चेतना है
                कृष्ण ही भावना है
कृष्ण ही गहना है
                 कृष्ण ही पाहुना है
कृष्ण ही अमृत है
                 कृष्ण ही खुशबू है
कृष्ण ही मंजिल है
                 कृष्ण ही सकल जहाँ है
कृष्ण समष्टि है
               कृष्ण ही व्यष्टि है
कृष्ण ही सृष्टी है
                कृष्ण  ही दृष्टि है
कृष्ण ही तृप्ति है
               कृष्ण  ही भाव है
कृष्ण ही प्रभाव है
                कृष्ण ही स्वभाव है
कृष्णस्तु भगवान स्वयं
 
 Զเधे Զเधे  Զเधे Զเधे

मन को भगवान मे लगाकर रखना चाहिये-

कबीरा यह जग निर्धना,,धनवंता नही कोई,---
धनवंता तेहुं जानिये,,जाको रामनाम धन होई--
बार बार रोते है वो लोग जो संसार से मोह करते है ओर ईस संसार मे प्रसन्न सिर्फ वो रहता है जो भगवान से मोह ओर प्रेम करता है

संसार मे जिसके पास पैसा नही है वो भी दुखी है ओर जिसके पास पैसा है वो भी दुखी है,-----
बहुत अमीर व्यक्ति तो एसे होते है जिनको नींद के लिए गोलियां खानी पडती है----
लिखने  का भाव ये है की संसार मे सब दुखी है लेकिन भक्त ईस भौतिक जगत मे भी आनंदित रहता है------

कोई तन दुखी तो कोई मन दुखी तो कोई धन बिन रहत उदास----
थोडे थोडे सब दुखी,,,सुखी राम का दास------
ईस संसार मे सब दुखी है क्योकि ये संसार दुखालयं है ओर ये संसार परिवर्तनशील है,,,यहां सुख आयेगा तो दुख भी आयेगा ओर दुख आयेगा तो सुख भी आयेगा ----
सुख दुख का चक्र हमेशा चलता रहता है--- संसारिक व्यक्ति ईन सुख दुख मे विचलित हो जाता है जिसकी वजह से वो 8400000 योनियो मे चक्कर काटता है---
सुख आने पर अकड कर चलता है ओर दुख आने पर घबरा जाता है लेकिन भक्त भक्ति के उत्साह ओर आनंद मे ईस तरह डुबा रहता है की सुख दुख का कोई प्रभाव नही पडता क्योकि भक्ति के आनंद के आगे संसारिक सुख दुख फीके होते है----
भक्त सुख दुख को भगवान का प्रसाद समझकर मन को मजबुत रखकर भक्तिमार्ग मे आगे बढता है------

तीन चीजे होते है----- सुख,,,दुख ओर आनंद------
सुख दुख भौतिक जगत मे मिलते है ओर आनंद भक्ति से यानि आध्यात्मिक जगत से मिलता है-----
सुख दुख तो जीवन मे आते जाते रहते है लेकिन अगर एक बार भक्ति जीवन मे प्रवेश कर जाये तो भक्ति का नशा कभी भी नही उतरता-----
गीता के दुसरे अध्याय मे भगवान ने कहा है की जो व्यक्ति सुख दुख से विचलित नही होता वही आनंद को प्राप्त करने के योग्य होता है----
संसार से मोह करने पर जीवन मे अशांति ,तनाव,,कमजोरी आती है ओर भक्ति करने से यानि भगवान से मोह करने से जीवन मे शांति,,आनंद,संतोष आदि आते है------
सेवा सबकी करनी चाहिये लेकिन मोह केवल भगवान से---
विश्वास भी केवल परमात्मा पर----
संसार के प्रति कर्तव्यो का पालन करते हुए मन को भागवत बनाकर चलने वाला गृहस्थी ही भगवद्प्राप्ति के योग्य होता है--- 
कथा जीवन जीने का सही रास्ता दिखाती है----
जो प्यासे है उन्हे प्रेम का अमृत पिलाती है---
ओर जो तडपते है हरपल उनसे मिलने के लिए--
कथा उनको बांके बिहारी से मिलाती है
भक्त ईसलिए आनंदित रहता है क्योकि भक्त को संसार मे जीना आ गया --- भक्त जीवन के लक्ष्य को हमेशा याद रखता है----
ये जीवन अशांत होने के लिए नही मिला,,,ये जीवन कमजोर बनने के लिए नही मिला----
ये जीवन भगवान को पाने के लिए मिला है ओर अगर मनुष्य संसार मे आकर संसार का सब कुछ प्राप्त कर ले ओर अगर भगवान को प्राप्त ना कर पाये तो संसार को पाकर भी खोना पडेगा----
सिकंदर ने कहा था की जब मै मरुं तो मेरी शवयात्रा के दौरान मेरे दोनो हाथो को बाहर निकाल देना ताकि दुनिया भी देखे की दुनिया को लुटने वाला सिकंदर भी खाली हाथ जा रहा है-----
ईस संसार की कोई भी वस्तु साथ नही जायेगी ----
प्रभु की भक्ति ओर प्रभु का नाम रुपि धन ही साथ जायेगा ईसलिए जितना हो सके उतना ही प्रभु का नाम लेना चाहिये ओर मन भगवान के प्रति शरणागत रखना चाहिये-----
श्वास श्वास पर कृष्ण भज,,वृथा श्वास मत खोए----
ना जाने या श्वांस को ,,फिर आवन होए ना होए--------
जिम्मेदारियो को छोडकर भागना नही है----
गीता ओर भागवत का सुत्र है की संसार के प्रति सभी कर्तव्यो का पालन करते हुए मन को भगवान मे लगाकर रखना चाहिये------

सेवा सबकी लेकिन मोह केवल भगवान से ,--
श्री राधे-- प्रेम से बोलिए श्री बांके बिहारी लाल की जय,-- श्री राधा स्नेह बिहारी लाल की जय

हे हरे ! आपने मुझे क्यों भुला दिया

हे हरे ! आपने मुझे क्यों भुला दिया ? हे नाथ ! आप अपनी महिमा और मेरे पाप, इन दोनोंकी ही जानते हैं, तो भी मुझे क्यों नहीं सँभालते ॥१॥
आप पतितोंको पवित्र करनेवाले, दीनोंके हितकारी और अशरणको शरण देनेवाले हैं, चारों वेद ऐसा कहते हैं । तो क्या मैं नीच, भयभीत या दीन नहीं हूँ ? अथवा क्या वेदोंकी यह घोषणा ही झूठी है ? ॥२।
( पहले तो ) मुझे आपने पक्षी ( जटायु गृध्र ), गणिका ( जीवन्ती ), हाथी और व्याध ( वाल्मीकि ) की पंक्तिमें बैठा लिया । यानी पापी स्वीकार कर लिया अब हे कृपानिधान ! आप कलिकाल आपसे अधिक बलवान होता और आपण आज्ञा न मानता होता, तो हे हरे ! हम आपका भरोसा और गुणगान छोड़कर तथा उसपर क्रोध करने और दोष लगानेका झंझट त्याग कर उसीका भजन करते ॥४॥
( परन्तु ) आप तो मामूली मच्छरको ब्रह्मा और ब्रह्माको मच्छरके समान बना सकते हैं, ऐसा आपका प्रताप है । यह सामर्थ्य होते हुए भी आप मुझे त्याग रहे हैं, तब हे नाथ ! मेरा फीर वश ही क्या है ? ॥५॥
यद्यपि मैं सब प्रकारसे हार चुका हूँ और मुझे नरकमें गिरनेका भी भय नहीं है, परन्तु मुझ तुलसीदासको यही सबसे बड़ा दुःख है कि प्रभुके नामने भी मेरे पापोंको भस्म नहीं किया ॥६॥
काहे ते हरि मोहिं बिसारो ।
जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो ॥१॥
पतित - पुनीत, दीनहित, असरन - सरन कहत श्रुति चारो ।
हौं नहिं अधम, सभीत, दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो ? ॥२॥
खग - गनिका - गज - व्याध - पाँति जहँ तहँ हौंहूँ बैठारो ।
अब केहि लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो ॥३॥
जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो ।
तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो ॥४॥
मसक बिरंचि, बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो ।
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो ॥५॥
नाहिन नरक परत मोकहँ डर, जद्यपि हौं अति हारो ।
यह बड़ि त्रास दासतुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो ॥६॥

Thursday 29 October 2015

अनन्य भक्ति के साधन ....

1 ... प्रार्थना -प्रातः काल आँख खुलने पर
..... कर दर्शन  करो और भगवान की प्रार्थना करो ...
... कराग्रे वसते लक्ष्मी , करमूले सरस्वती ।
करमध्ये तु गोविन्दः , प्रभाते कर दर्शनम् ।।
... परन्तु आजकल प्रभात मे कप दर्शन होने लगा ...
....प्रातः काल उठकर कर दर्शन करो अर्थात् मन मेँ विचार करो कि आज मै इन हाथो से सत्कर्म ही करुँगा ताकि परमात्मा मेरे घर पधारने की कृपा करेँ ...
.... हाथ क्रिया शक्ति का प्रतीक है,,,,
.,,,.... भगवान से प्रार्थना करो कि जिसप्रकार आपने अर्जुन का रथ हाँका था उसी प्रकार आप मेरे जीवन रथ के सारथी बनेँ ..
फिर नवग्रहोँ का ध्यान करेँ ...
"ब्रह्मामुरारिस्त्रिपुरान्तकारीभानु:शशिभूमिसुतोबुधश्च, गुरुश्च शुक्र: शनि राहू केतव: कुर्वन्तु सर्वे मम ।"
तब नासिका के पास हाथ ले जाकर देखे यदि दायाँ स्वर चल रहा हो दायाँ पैर , बायाँ स्वर चल रहा हो तो बायाँ पैर धरती पर रखे , पैर रखने से पूर्व प्रार्थना करेँ .......
"समुद्र वसने देवि, पर्वतस्तनमण्डले, विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे."
माता पिता एवं गुरुजनोँ को प्रणाम करेँ । नित्य क्रिया से (शौचादि )पहले  बोले ......
"उत्तिष्ठन्तु सुरा: सर्वेयक्षगन्धर्व किन्नरा,। पिशाचा गुह्यकाश्चैव मलमूत्र करोम्यहं ।।."
निवृत्त होकर दातुन करते समय प्रार्थना करेँ ......
"हे जिह्वे रस सारज्ञे, सर्वदा मधुरप्रिये, नारायणाख्य पीयूषम् पिव जिह्वे निरन्तरं."।
"आयुर्बलं यशो वर्च: प्रजा पशुवसूनि च, ।
ब्रह्म प्रज्ञाम् च मेघाम् च त्वम् नो देहि वनस्पते. ।।"
2 .सेवा पूजा -  स्नान से पूर्व जल मे गंगादि का आवाहन करने हेतु पढ़े ...
"गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ,।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिँ कुरु ।।"
फिर निम्न मंत्रो को बोलते हुए स्नान करेँ .....
"अतिनीलघनश्यामं नालिनायतलोचनम्, ।
स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम्. ।।
स्नानादि से निवृत्त होकर एकान्त मे भगवान की सेवा पूजा करने के लिए मानसिक शुद्धि के लिए  निम्न मन्त्रोँ द्वारा अपने ऊपर छल छिड़के .,..... ..
"ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा, य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतर: शुचिः ।".
निम्न मंत्रो को पढ़ते हुए शिखा बन्धन करेँ .......
"चिद्रूपिणि ! महामाये ! दिव्यतेज:समन्विते, ।
तिष्ठ देवि ! शिखामध्ये तेजो वृद्धिम् कुरुष्व में. ।।
चन्दन लगायेँ
"चन्दनस्य महत्पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ।
आपदां हरते नित्यं लक्ष्मी तिष्ठति सर्वदा ।।"
3 .स्तुति - भगवान की स्तुति करेँ .,.,,,
" शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं , विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णँ शुभाङ्गं ।
लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिर्भिध्यानगम्यं , वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।" 
हे नाथ आपने जब अजामिल जैसे पापी का उद्धार कर दिया तो फिर आप मेरी ओर क्यो नहीँ देखते ?
4 ..कीर्तन - स्तुति के बाद एकान्त मेँ बैठकर प्रभु के नाम का कीर्तन करो ....
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे .... हे नाथ नारायण वासुदेव ...
.,......अपना कामकाज करते समय भी प्रभु का स्मरण करते रहो ,,,
5. कथा श्रवण - प्रभु के प्यारे संतो का समागम करो , उनके श्रीमुख से कथा श्रवण करो , हो सके तो रोज कथा सुनो .
यदि नही सुन सकते समयाभाव मेँ , तो रामायण , भागवत की कथा का वाचन करो ।
प्रेम पूर्वक उसका पाठ करो ।
6 . स्मरण - समस्त कर्मो का समर्पण - रात को सोने से पहले किये हुए कर्मो का विचार करो कि, क्या प्रभु को पसन्द आएँ ऐसे कर्म मेरे हाथ से आज हुए है ।
यदि अन्दर से नकारात्मक उत्तर मिले , तो मान लेना कि वह दिन जीते हुए नही मरते हुए निकल गया । अतः क्षमा प्रार्थना करेँ.,,
"अपराध सहस्राणि क्रियन्ते अर्हनिशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर ।।
.,,.... यदि कोई पाप हो जाय तो प्रायश्चि करो , और किए हुए सभी कर्म को परमात्मा को अर्पित करो ... 
" अनेन कर्मणा श्रीलक्ष्मीनारायण प्रीयतां न मम् ।।

नवधा भक्ति में रखीं , " तुलसी " आठ सशर्त।

नवधा भक्ति में रखीं , " तुलसी " आठ सशर्त।
केवल पहली में नहीं , रक्खी कोई शर्त।।
इसीलिए भक्ति यही , है सबसे आसान।
ऊपर से यह दिव्यता, कि मिला सके भगवान।।
क्यों ? फिर हम उन आठ में , ज्यादा रुचि दिखायं।
उतनी ही वे बहुत है , जितनी हम कर पायं।।
पहली से ही सध रहे , जब अपने सब काम।
तो क्यों ? शर्तों में बंधें , बोलो " रोटीराम "।।

( तुलसीदास जी ने लिखा है कि - - - - )

 बिन सत्संग विवेक न होई , राम कृपा बिन सुलभ न सोई ।।

( शर्तों का विवरण )

 प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ,  

शर्त ( कोई नहीं )
दूसर रति मम कथा प्रसंगा , 

शर्त - कथा सुनें , मगर ( रति ) के साथ,
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति ( अमान ), 

शर्त - गुरु चरणों की सेवा, मगर( अमानी) होकर,
चौथि भगति मम गुन गन ,  करइ ( कपट ) तजि गान ।
शर्त - ( कपट ) से रहित होकर
मंत्र जाप मम ( दृढ विस्वासा ) , पंचम भजन सो वेद प्रकाशा,
शर्त - ( दृढ विस्वास होना चाहिए ) ,
छठ दम सील ( विरति ) बहु करमा , निरत निरंतर सज्जन धरमा,
शर्त - ( विरक्ति ) लेकर निरन्तर( धर्म का पालन ) ,
सातवँ सम ( मोहि मय जग देखा ) , मोते अधिक संत करि लेखा,
शर्त - ( चराचर सृष्टि में मेरा दर्शन हो )
आठवँ जथा लाभ संतोषा , सपनेहुँ नहीं देखइ परदोषा ,
शर्त - ( सन्तोषी हो , और दूसरों में दोष न देखे ),
नवम सरल सब सन छल हीना , मम भरोस हियँ हरष न दीना ,

 नव महुँ एकउ जिन्ह के होई ,  नारि पुरुष सचराचर कोई ,

Wednesday 28 October 2015

कृष्ण सूर्यप्रकाश के तुल्य है



कृष्ण सूर्यप्रकाश के तुल्य है और जहाँ भी कृष्ण रहते है वहाँ अंधकार रुपी माया नहीँ रह सकती । जब कृष्ण को वसुदेव ले जा रहे थे , तब रात्रि का अंधकार दूर हो गया । कारागार के बंधन स्वयमेव खुल गये ।
जब वसुदेव ने कृष्ण को मस्तक पर पधराया तो सारे बंधन टूट गये ।
किन्तु जब गोकुल से कन्या यानी माया को ले आये तो पुनः बन्धनयुक्त हो गये ..
अतः माया रुपी बंधन से बचने हेतु भगवान श्रीकृष्ण के चरणो को अपने मस्तक पर धारण करना चाहिए
यदि अपना जीवन साथक बनाना चाहते हो तो चीज कभी मत छोड़ो = 1. श्रीराधाजी के चरण ! 2. श्रीबहारजी की शरण !
घरकी शोभा भगवान् से हैं l आपके घरमें जो सबसे अच्छी जगह हो, वहाँ भगवान् को विराजो l आजकल लोग साधारण-सी जगहमें भगवान् को बैठा देते हैं l
भगवान् को मालिक मानो-मेरे घरके मालिक भगवान् हैं l भगवान् ने यह सबकुछ दिया है l जो घरमें सेवक बनकर रहता है, उसका मन नहीँ बिगड़ता l
जिस समय तुम्हें भगवान् की याद आये तो तुम जानो कि भगवान् ने हमारे ऊपर कृपा करके हमारे सिर पर हाथ रखा है । फिर भी यदि तुम उस नाम को छोड़ दोगे तो भगवान् का हाथ अपने ऊपर से हटाना यानि उतारना होगा ।

चीर हरण लीला >>

कुमारिकाओ के मन मेँ ऐसी भावना थी कि वे नारी हैँ । ऐसा भाव अहंकार का द्योतक है । उनके इसी अहंभाव को दूर करने हेतु श्रीकृष्ण ने चीर हरण लीला की । इस लीला द्वारा अहंकार का पर्दा हटाकर प्रभू को सर्वस्व अर्पण करने का सन्देश श्रीकृष्ण ने दिया ।
भगवान कहते है - तुम "अपनापन" स्वत्व भुलाकर मेरे पास आऔ । संसार शून्य और सांसारिक संस्कार शून्य होकर , निरावृत्त होकर मेरे पास आओ । द्वैत का आवरण दूर करने पर भी भगवान मिलेँगे ।
" सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज"
गीता मे भी अर्जुन से कहा है। यदि श्रीमदभागवत को गीता के सिद्धान्तो की व्याख्या कहा जाय तो अतिशयोक्ति नही होगा ।
शरीर को वस्त्र छिपाता है और आत्मा को वासना । भगवान हमारे पास ही है किन्तु वासना के कारण देख नहीँ पाते ।
कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूढ़े वन माहि ।
ऐसे घट घट राम दुनिया देखे नाहि ।।
तथा - सियाराम मय सब जग जानी ।।
एवं - सो तुम जानहुँ अन्तरयामी ।।
आत्मा और परमात्मा के बीच वासना का पर्दा है सो हम भगवान का अनुभव नहीँ कर पाते । जैसे ही यह पर्दा हटेगा प्रभू का दर्शन होगा ।
आत्मा अंदर है और ऊपर है अज्ञान और वासना का पर्दा ।
अज्ञान और वासना के इस आवरण को चीर कर भगवान से मिलना है । सिद्ध गुरु की कृपा , परमात्मा की कृपा से बुद्धिगत वासना दूर होती है। बुद्धि मेँ स्थित काम , कृष्ण मिलन मे बाधक है ।
अज्ञान - वासना - वृत्तियोँ के आवरण का नष्ट होना ही चीर हरण लीला है और आवरण नाश के पश्चात जीवात्मा का प्रभू से मिलन है रासलीला ।
कामवासना नष्ट होने पर ईश्वर के साथ अद्वैत हो जाता है ।
भगवान लौकिक वस्त्रो की नहीँ बल्कि बुद्धिगत अज्ञान , कामवासना की चोरी करते है। श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैँ , वे जल मे भी हैँ । वे तो गोपियो से मिले हुए ही थे , किन्तु गोपियाँ अज्ञान और वासना से आवृत्त होने के कारण श्रीकृष्ण का अनुभव नही कर पाती थीँ ।सो उस बुद्धिगत अज्ञान और वासनारुपी वस्त्रोँ को भगवान उठा ले गये । वैसा प्रभू तब करते है जब जीव उनका हो जाता है ।
भगवान कहते है -
न मय्यावशितधियां कामः कामाय कल्पते ।
भर्जिता क्वथिता धान्यः प्रायो बीजाय नेष्यते ।।
जिसने अपनी बुद्धि मुझमे स्थापित कर लिया है , उनके भोगसंकल्प , सांसारिक विषय भोग के लिए नहीँ होते ।बल्कि वे संकल्प मोक्षदायी होते है । जैसे भुने हुए धान्य का बीजतत्व नष्ट हो जाता है और कभी अंकुरित नहीँ हो पाता । उसी प्रकार जिसकी बुद्धि मे से काम वासना का अंकुर उजड़ गया है , वह फिर से अंकुरित नही हो पायेगा ।

Saturday 24 October 2015

मानव काया ही तुंगभद्रा है ।

 भद्रा का अर्थ है कल्याण करने वाली , और तुंग का अर्थ है अधिक । अत्यधिक कल्याण करने वाली नदी ही तुंगभद्रा नदी है और वही मानव शरीर है । अपनी आत्मा को स्वयं देव बनाये वही आत्मदेव है । आत्मदेव ही जीवात्मा है । हम सब आत्मदेव है । नर ही नारायण बनता है । मानव देह मे रहा हुआ जीव देव बन सकता है , और दूसरोँ को भी देव बना सकता है ।
पशु अपने शरीर से अपना कल्याण नहीँ कर सकते । किन्तु मनुष्य बुद्धिमान प्राणी होने के कारण अपने शरीर से अपना तथा दूसरो का कल्याण कर सकता है ।
गुस्सा एवं कुतर्क करने वाली बुद्धि ही धुंधुली है । द्विधा बुद्धि , द्विधा बृत्ति ही धुंधुली है । यह द्विधा बुद्धि जब तक होती है तब तक आत्मशक्ति जाग्रत नहीँ होती ।
बुद्धि के साथ आत्मा का विवाह सम्बन्ध तो हुआ किन्तु जब तक उसे कोई महात्मा न मिले , सत्संग न हो तब तक विवेक रुपी पुत्र का जन्म नही होता है । विवेक ही आत्मा का पुत्र है । " बिनु सत्संग विवेक न होई " जिसके घर मे विवेक रुपी पुत्र का जन्म नही होता वह संसार रुपी नदी मेँ डूब जाता है । स्वयं को देव बनाने और दूसरोँ को देव बनाने की सामर्थ्य आत्मा मेँ है किन्तु आत्मशक्ति जाग्रत तभी होती है जब सत्संग होता है । हनुमान जी समर्थ थे किन्तु जब जामवन्त ने उनके स्वरुप का ज्ञान कराया तभी उन्हे अपने स्वरुप का आत्मशक्ति का ज्ञान हुआ ।" का चुपि साधि रहा हनुमाना " ।
सत्संग से आत्मशक्ति जाग्रत होती है । सन्त महात्मा द्वारा दिया गया विवेक रुपी फल बुद्धि को पसन्द नही है ।
धुँधली (बुद्धि ) छोटी बहन है। मन बुद्धि की सलाह लेता है तो दुःखी होता है । मन कई बार आत्मा को धोखा देता है ।
आत्मदेव की आत्मा बड़ी भोली है उसे मन बुद्धि का छल समझ मे नही आता । अतः फल गाय को खिलाया । गो का अर्थ गाय , इन्द्रिय , भक्ति आदि है ।
धुंधुकारी कौन है - हर समय द्रव्य सुख , और काम सुख का चिन्तन करे , धर्म को नही बल्कि काम सुख एवं द्रव्य सुख ही प्रधान है ऐसा माने वही धुँधुकारी है । बड़ा होने पर धुँधुकारी पाँच वेश्याएँ लाया अर्थात् शब्द , स्पर्श , रुप , रस और गन्ध ये पाँच विषय ही पाँच बेश्याएँ है जो धुँधुकारी अर्थात् जीव को बाँधती है ।
धुँधुकारी के लिए कहा गया है - शव हस्ते भोजनम् अर्थात् के हाथ से भोजन करता था । जो हाथ परोपकार नही करते , श्रीकृष्ण की सेवा नही करते , वे हाथ शव के ही हाथ हैँ । धुँधुकारी स्नानादि क्रिया से हीन था । धुँधुकारी कामी था अतः स्नान तो करता ही होगा किन्तु स्नान के बाद सन्ध्या सेवा न करे , सत्कर्म न करे तो वह स्नान ही व्यर्थ है वह पशु स्नान है अतः कहा गया वह स्नान ही नही करता था ।
तीन प्रकार के स्नान - उषाकाल मेँ 4 बजे से 5 बजे तक ऋषि स्नान । 5 बजे से 6 बजे तक मनुष्य स्नान । 6 बजे के बाद किया जाने वाला राक्षसी स्नान ।
सूर्य बुद्धि के स्वामी है उनकी सन्ध्या करने से बुद्धि तेज होती है । सम्यक ध्यान ही संध्या है ।
स्वान्तःसुखाय
श्रीहरिशरणम्

Wednesday 21 October 2015

भक्त प्रभु से सिर्फ यही चाहता है

भक्त प्रभु से सिर्फ यही चाहता है की प्रभु तेरी याद जीवन मे हमेशा बनी रहे--
संसार के सुखो की दूनिया चाहे लाख बार उजड जाये लेकिन प्रभु तुम अपने चरणो से जुदा मत करना-
भक्त कहते है की हमे ना ही संसारिक भोग चाहिये ओर ना ही संसारिक उपलब्धियां---
हमे सिर्फ एसा बना दीजिये की हम हर क्षण आपका चिंतन करते रहें ओर हमारे अंदर आपके दर्शन की लगन लगे ओर हम आपके विरह मे आंसु बहायें एसा हमे भाव दीजिये--
हमे दुख दे दीजिये क्योकि मनुष्य सुखो से आसक्ति करके प्रभु को भुल जाता है ईसलिए प्रभु हमे या तो दुख दे दीजिये ओर या फिर एसा भाव प्रदान कर दीजिये की सुख दुख मे हम आपको हमेशा याद करते रहें--
सच्चा भक्त तो वही होता है जो हर परिस्थिति मे प्रभु को याद रखता है-
भक्ति के आनंद मे भक्त ईतना उत्साहित रहता है की उसे पता ही नही चलता की कब सुख आया ओर कब दुख आया---
जिस तरह मर्सडिज की गाडी मे बैठकर सडक के गड्डे महसुस नही होते उसी प्रकार जो भक्ति की गाडी मे बैठ जायेगा उसे सुख दुख विचलित नही कर सकते--
प्रेमी भक्तजनो,,,एसा भाव जरुर जीवन मे आयेगा जब कथामृत जीवन मे उतरेगा--
कथा को जो पियेगा वही भगवान को प्राप्त करने के योग्य बनेगा--
अब हम कुंति प्रसंग की तरफ बढ रहे है-- कुंति ने बहुत प्यारी स्तुति गाई है--जब कृष्ण द्वारिका जा रहे थे तो कुंति ने रथ पकड लिया---
कृष्ण का नियम था की वे प्रतिदिन अपनी बुआ को प्रणाम करते थे-- ओर जब आज कृष्ण अपनी बुआ को प्रणाम करने के लिए रथ से नीचे उतरे तो आज कुंति ने प्रणाम किया--
कृष्ण बोले की अरी बुआ ये आप क्या कर रही हो?? मै आपका भतीजा हूं-
कुंति बोली की शरीर का रिश्ता तो बाद मे है लेकिन उससे पहले तेरा ओर मेरा जीव ओर परमात्मा का रिश्ता है--
हम सब जीव है ओर तु परमपिता परमात्मा---
कुंति ने बहूत प्यारी स्तुति गाई है--
कुंति ने कहा की--
नमस्ये पुरुषं त्वामीद्यश्वरं प्रकृते: परम्--अलक्ष्यं सर्वभुतानामन्तर्बहिरवदगथितम्--
ईस श्लोक मे कुंति ने कहा की पुरुषं त्वामीद्यश्वरं अर्थात् हे कृष्ण तुम आदि पुरुष हो --ओर प्रकृते परम् अर्थात् भौतिक गुणो से परे हो--
भगवान के अंदर सतोगुण रजोगुण तमोगुण नही होते--
भगवान गुणातीत होते है--
सर्वभुतानामन्तर्बहिवस्थितम् अर्थात् सब प्राणियो के अंदर ओर बाहर स्थित हो एसे कृष्ण आदि पुरुष को मै प्रणाम करती हूं---
कुंति ने कहा की प्रभु आप अपनी माया के पर्दे से ढके रहते हो--
जो मनुष्य उस माया के पर्दे को हटा देगा तो साक्षात् प्रभु का दर्शन पाता है ओर जो माया का दास बनता है वो कभी भी भगवद्प्राप्ति नही कर पाता-
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च--
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम:--
मै उन भगवान को नमस्कार करती हूं जो वसुदेव के पुत्र ,देवकी के लाडले,नन्द के लाल ओर वृंदावन के अन्य ग्वालो ओर गौवो के प्राण बनकर आये है-- उसके बाद कुंति ने भगवान को कृपाएं याद दिलाई ओर कहा की हे कृष्ण तुमने उतनी कृपा तो अपनी मां देवकी पर भी नही की जितनी कृपा तुमने मुझपर की है--
देवकी के छह पुत्रो को कंस ने मार दिया ओर मेरे पुत्रो को तो आपने हर मुसिबत से बचाया है प्यारे----
जब - जब हमपर संकंट आया तब तब तुमने हमारी रक्षा की ओर जब अब हमे सुख प्राप्त हुआ तो तु हमे छोडकर जा रहा है--
गोविंद तुम एसा करो करो की मुझे दुख दे दो क्योकि दुख जीवन मे रहेगा तो तेरी याद ओर तु हमेशा हमारे पास रहेगा ईसलिए मुझे दुख दे दो गोविंद---
एसे सुख पर सिला पडे जो गोविंद नाम भुलाए---
बलिहारी उस दुख की जो गोविंद नाम रटाए--
कितनी प्यारी स्तुति गाई है कुंति माता ने--
प्रेमी भक्तो,, भगवान के प्रेमियो का धन तो सिर्फ भगवान का नाम ओर भगवान की कथाएं होती है ओर संसार के सुखो मे उनका मोह नही होता --
कुंति भगवान से दुख मांग रही है क्योकि कुंति भगवान से बहूत प्रेम करती है ओर प्रेमी भक्त हमेशा चाहता है की भगवान की याद हर क्षण जीवन मे बनी रहे---
भक्त माया से मोह नही रखते --
माया से मोह विनाश की तरफ लेकर जाता है-- -हे कृष्ण जो आपकी लीलाओ का निरन्तर श्रवण,कीर्तन ओर स्मरण करते है वे आपके चरणकमलो का दर्शन पाते है-- हम भी भगवान से प्रार्थना करें की प्रभु हमारे जीवन मे चाहे कैसा भी समय हो लेकिन आपकी याद हमेशा जीवन मे बनी रहे--
★कृपा तुम्हारी सबपर बनी रहे--
तेरे नाम की लहर दिल मे चली रहे---
भुलें ना तुझे एसी कृपा करना--
तेरे नाम की मस्ती जीवन मे चढी रहें-- ★- ईस प्रकार कुंति स्तुति सुनकर भगवान प्रसन्न हुए ओर कुंति को आशीर्वाद दिया की बुआ जीवन की हर परिस्थिति मे तुझे मेरा स्मरण हमेशा बना रहेगा---
उसके बाद भगवान एक दिन ओर हस्तिनापुर रुके---
कल भीष्म प्रसंग पर चर्चा करेंगे--
--श्री राधे, श्री हरिदास-

वेष्ण

एक गाँव में किसी देवी के बहुत बड़े उपासक रहते। उनके पास ऐसी सिद्धि थी की जब वो अपने आराध्य देवी को याद करे तब वे देवी साक्षात् प्रकट होते।
एक बार चाचा हरिवंशजी और उनके संग में आये हुए वैष्णव कही जा रहे थे। रात्रि का समय हुआ, सभी वैष्णव ने रात्रि मुकाम करने का विचार किया।
रात्रि को चाचा हरिवंशजी और संग में आये हुए वैष्णव उस उपासक के घर के आँगन में विश्राम हेतु सो गये।
उस उपासक ने नित्य की तरह रात्रि में मालजी लेकर जप प्रारम्भ किया। उसे सिद्धि प्राप्त थी की जब वो जप प्रारम्भ करता तब उसकी आराध्य देवी प्रकट हो जाती।
उपासक ने पूरी रात्रि जप किया लेकिन उसकी आराध्य देवी प्रकट नही हुई। उपासक का मन आकुल व्याकुल हो गया और विचार करने लगा की आज मेरी साधना में कोई भूल हुई होगी? मुझसे कोई अपराध हुआ होगा? आज पूरी रात्रि जप किये फिर भी देवी क्यों प्रकट नही हुए?
सुबह होते ही उपासक ने उनकी आराध्य देवी का नाम लिया। नाम लेते ही उसकी आराध्य देवी सामने से चलते हुए उपासक के घर आये। उपासक ने देवी से पूछा की मेने पूरी रात जप किये फिर भी आप नही पधारे और सुबह नाम लेते ही आप पधारे। आप रात्रि को क्यों नही पधारे?
तब उस उपासक की आराध्य देवी ने कहा की- मैं रात्रि को आई तो थी लेकिन तुम्हारे घर के अन्दर नही आ सकी।
उस देवी ने कहा की- जब में तुम्हारे घर आँगन में आई तब मेने देखा की यहा तो वैष्णव विश्राम कर रहे है। वैष्णव को देखकर मुझे लगा की मैं तो प्रभु की माया हूँ लेकिन ये तो वैष्णव है जिनके रोम रोम में प्रभु बिराजते है, जिनके पीछे पीछे मेरे प्रभु दोड़ते है।
जब ऐसे वैष्णव विश्राम करते हो तब उन वेष्णवो को उलाँघ कर मैं तुम्हारे घर में केसे आती?
उपासक ने देवी से पूछा- “फिर आपने पूरी रात्रि क्या किया?”
तब देवी ने कहा- जिन वेष्णवो की टेहल के लिए देवता भी तरसते है ऐसे वेष्णवो की सेवा मुझे सुलभ हुई है। कल रात्रि को गर्मी बहुत थी, मैं पूरी रात खड़ी खड़ी इन वेष्णवो के सुख के लिए पंखे की सेवा कर रही थी।
उपासक ने देवी से आश्चर्य होकर पूछा की- ” ये वैष्णव आप से बड़े है क्या जो आप इनको पंखे की सेवा दे रहे थे?
तब देवी ने उपासक से कहा की- जिनके रोम रोम में प्रभु हो,जिनके अधीन श्री प्रभु हो गये हो ऐसे वैष्णव से मैं बड़ी हो ही नही सकती।
उपासक ने देवी से पूछा- वे सारे वैष्णव कहा है?
तब देवी ने कहा की- अभी वे ज्यादा दूर नही गये, तुम दोड़ते दोड़ते जाओ वे तुम्हे गाँव के बहार मिल जायेंगे।
उपासक दोड़ते दोड़ते चाचा हरिवंशजी के पास पंहुचा और विनती करी- “मुझे वैष्णव होना है कृपा कर मुझे शरण में लीजिये।
चाचा हरिवंशजी ने कहा की तुम्हे शरण तो हमारे श्री गुरु श्री गुंसाईजी लेंगे। उस उपासक की आतुरता देख चाचा हरिवंशजी ने उसे श्री गुंसाईजी का आशीर्वाद उपरणा पधराया।
श्री गुंसाईजी का आशीर्वाद उपरणा लेकर उपासक अपने घर आया और उस उपरने को एक खूंटे पर पधरा दिया।
उस दिन उपासक के यहा उनसे मिलने हेतु खूब मेहमान आये हुए थे। जब उपासक जप करने बेठा तब हवा के झोंके के साथ खूंटे पर पधराया हुआ उपरणा उपासक के गले में आ गया।
उपासक के गले पर उपरणा आते ही उसे घर में आये हुए मेहमान पशु की तरह दिखने लगे। उसे खूब आश्चर्य हुआ। जब उसने उपरणा निकाला तो उसे सभी मनुष्य की तरह दिखने लगे।
उपासक जब उपरणा ओड़कर गाँव में निकला तो उसे पुरे गाँव में पशु ही दिखे कोई मनुष्य दिखे ही नही।
जब उपासक गाँव में थोड़ी दुरी पर गया तो उसे 2 मनुष्य दिखे। उपासक ने उन 2 मनुष्य से पूछा आप कोन हो?
तब उन मनुष्य ने कहा की हम वैष्णव है। नित्य श्री प्रभु की सेवा सत्संग और स्मरण करते है।
तब उस उपासक को ख्याल आया की ये प्रसादी उपरणा गले में आते ही मेरी अन्तर्दृष्टि खुल गई। जो जीव खाना पीना ही अपना जीवन मानते है ऐसे जीव उसे पशु जेसे दिखने लगे और जो जीव सेवा सत्संग स्मरण करते वे मनुष्य जेसे लगे। श्री गुंसाईजी के ऐसे जीवों को कोटी कोटि वंदन।
।।।   श्री गुंसाईजी परम दयाल की जय   ।।।

Sunday 18 October 2015

भगवान् श्री कृष्ण का प्रेम



" भगवान् श्री कृष्ण का प्रेम पा कर मनुष्य सारी बाह्य वस्तुओं को भूल जाता है। जगत का ख्याल उसे नहीं रहता,यहाँ तक कि सब से प्रिय अपने शरीर को भी भूल जाता है। जब ऐसी अवस्था आवे तब समझना चाहिए कि प्रेम प्राप्त हुआ ।"
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क्या आपको 'कृष्ण' का अर्थ मालूम है? वह जो प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु को अपनी और आकर्षित करता है, कृष्ण है| ऐसा आकर्षण जो रोका ही न जा सके! पूरा भागवत यह बताता है कि कृष्ण कितने मंत्रमुग्ध कर देने वाले थे| जब वे रथ में बैठ कर गलियों से गुजरते थे तो लोग मूर्ति की तरह स्तब्ध हो कर उन्हें निहारते रह जाते थे... उनके निकल जाने के बाद भी वे बस वहां खड़े रह जाते थे... गोपियाँ कहती 'जाते जाते वे मेरी नज़रे ही ले गए...'| यानी, ऐसे स्थिति, जब दर्शक और दृश्य एक हो जाए..|
ऐसे बहुत से वृत्तांत हैं... एक गोपी, जो श्रृंगार कर रही थी; कृष्ण के आने की खबर सुनकर, एक ही आंख में प्रसाधन लगे हुए उन्हें देखने दौड़ पड़ी.. दिव्यता अत्यंत आकर्षक है.. (ताकि) हमारा मन तुच्छ बन्धनों से ऊपर उठ सके.. इसीलिए इसे 'मोहन' कहा गया है; मोहन ह्रदय को आकर्षित करता है, मोहित करता है और प्रीति से भर देता है...|

भगवान् कृष्ण की महिमा



श्रीकृष्णाय वयन्नुम: 
भगवान् कृष्ण की महिमा
सच्चिदानन्दरूपाय स्थित्युत्पत्त्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयन्नुम:।।
     भले लोगों को शरण देने वाले, सत्, चित् और आनन्द स्वरूप, संसार के सृजन, पालन और संहार के कारण, और आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक तीनों तापों को दूर करनेवाले भगवान् कृष्ण को हम लोग प्रणाम करते हैं।
     मनुष्य जाति के इतिहास में जितने पुरुषों की कथा संसार में विदित है, उनमें सबसे बड़े भगवान् कृष्ण हुए हैं। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का जितना ऊँचा विकास उनमें हुआ, उतना किसी दूसरे पुरुष में नहीं हुआ। जैसे विमल ज्ञान और जैसी सात्त्विक नीति का उन्होंने उपदेश किया, वैसा किसी और ने नहीं किया। उनकी महिमा के विषय में मैंने अपना सब अभिप्राय दो श्लोकों में लिख दिया है-
सत्यव्रतौ महात्मानौ भीष्मव्यासौ सुविश्रुतौ।   
उभाभ्याम्पूजित: कृष्ण: साक्षाद्विष्णुरिति ह्यलम्।
माहात्म्यं वासुदेवस्य हरेरद्भुतकर्मण:। 
तमेव शरणं गच्छ यदिश्रेयोऽभिवाञ्छसि।
      अर्थात् जिन भगवान् कृष्ण ने अपने प्रकट होने के समय से अन्तर्धान होने के समय तक साधुओं की रक्षा, दुष्टों का दमन, पाप और धर्म की स्थापना आदि अनेक अद्भुत कर्म किए, उनका माहात्म्य केवल इसी बात से भलीभाँति विदित है कि महाभारत के रचयिता श्री वेदव्यास और भीष्म पितामह, जिनका सत्य का व्रत प्रसिद्ध है और जो दोनों कृष्ण के समकालीन थे, और इसलिये जो उनके गुणों से भलीभाँति परिचित थे, दोनों ही महात्माओं ने भगवान् कृष्ण को साक्षात् विष्णु मानकर पूजा है।
सनातनधर्म  सप्ताहिक वर्ष २, अंक ७, ३० अगस्त १९३४